महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 93 श्लोक 21-43

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त्रिनवतितम (93) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद

धीरे-धीरे अत्यन्त भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो भीरू मनुष्यों को डराने वाला था। घुड़सवार हाथी सवारों के और पैदल रथियों के साथ भिड़ गये। राजन् ! वे समरांगण मे एक दूसरे को ललकारते हुए जूझ रहे थे। उस समय उस भीषण संघर्ष से सहसा बड़े जोर की धूल उठी, जो हाथी, घोड़े और पैदलों के पैरों तथा रथ के पहियों के धक्के से उठायी गयी थी। महाराज ! काले और लाल रंग की उस दुःसह धूल ने समस्त रणभूमि को ढक दिया। उस समय अपने और शत्रु पक्ष के योद्धा एक दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। उस मर्यादा शून्य रोमान्चकारी जनसंहार में पिता पुत्र को और पुत्र पिता को नहीं पहचान पाता था। भरतश्रेष्ठ ! शस्त्रों के आघात और मनुष्यों की गर्जना का महान् शब्द भूत-प्रेतों की गर्जना के समान जान पड़ता था। हाथी, घोडे़ और मनुष्यों के रक्त और आँतों की एक भयंकर नदी बह चली, जिसमें केश सेवार और घास के समान जान पड़ते थे। मनुष्यों के शरीर से रणभूमि में कटकर गिरते हुए मस्तकों का महान पत्थरों की वर्षा के समान जान पड़ता था। बिना सिर के मनुष्यों, कटे हुए अंगों वाले हाथियों तथा छिन्न-भिन्न शरीर वाले घोड़ों से वहाँ की सारी भूमि पट गयी थी। नाना प्रकार के शस्त्रों को चलाते और एक दूसरे की ओर दौड़ते हुए महारथी सर्वथा युद्ध के लिये उद्यत थे। घुड़सवारों द्वारा प्रेरित हुए घोड़े घोड़ों से भिड़कर आपस में टक्कर लेकर प्राणशून्य हो रणक्षेत्र में गिर पड़ते थे। मनुष्य मनुष्यों पर आक्रमण करके अत्यन्त क्रोध से लाल आँखें किये छाती से छाती भिड़ाकर एक दूसरे को मारने लगे। महावतों के द्वारा आगे बढ़ाये हुए हाथी विपक्षी हाथियों से टक्कर लेकर युद्धस्थल मे अपने दाँतों के अग्रभाग से हाथियों पर ही चोट करते थे। उस समय उनके मस्तक से रक्त की धारा बहने लगती थी। परस्पर भिड़े हुए वे हाथी पताकाओं से अलंकृत होने के कारण विद्युत सहित मेघों के समान दिखायी देते थे। कितने ही हाथी दाँतों के अग्रभाग से विदीर्ण हो रहे थे। कितनों के कुम्भस्थल तोमरों की मार से फट गये थे और वे गर्जते हुए बादलों के समान चीत्कार करते हुए इधर-उधर भाग रहे थे। किन्हीं की सूँड़ों के दो टुकडे़ हो गये थे, किन्ही के सभी अंग छिन्न-भिन्न हो गये थे, ऐसे हाथी पंख कटे पर्वतों के समान उस भयानक युद्ध में धड़ाधड़ गिर रहे थे। बहुत से श्रेष्ठ हाथी हाथियों के आघात से ही अपना पार्श्‍व भाग विदीर्ण हो जाने के कारण उसी प्रकार प्रचुर मात्रा में अपना रक्त बहा रहे थे, जैसे पर्वत गेरू आदि धातुओं से मिश्रित झरने बहाते हों। कुछ हाथी नाराचों से घायल किये गये थे, कितनों के शरीरों में तोमर धँसे हुए थे और वे सबके सब घोर चीत्कार करते हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे। उस समय वे श्रृडंगहीन पर्वतों के समान जान पड़ते थे। कितने ही मदान्ध गजराज क्रोध में भरे होने के कारण काबू में नहीं आते थे। उन्होंने रणभूमि में सैकड़ों रथों, घोड़ों और पैदल सिपाहियों को पैरों तले रौंद डाला। इसी प्रकार घुड़सवारों द्वारा प्राप्त और तोमरों की मार से घायल किये हुए घोड़े सम्पूर्ण दिशाओं को व्याकुल करते हुए इधर-उधर भाग रहे थे। कितने ही कुलीन रथी अपने शरीर को निछावर करके भारी से भारी शक्ति लगाकर विपक्षी रथियों के साथ निर्भय की भाँति महान पराक्रम प्रकट कर रहे थे। राजन् ! युद्ध में शोभा पाने वाले वीर स्वर्ग अथवा यश पाने की इच्छा रखकर स्वयंवर की भाँति उस युद्ध में एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। इस प्रकार चलने वाले उस रोमान्चकारी संग्राम में दुर्योधन की विशाल सेना प्रायः युद्ध से विमुख होकर भाग गयी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में संकुल युद्धविषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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