द्विपञ्चाशदधिकशततम (152) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्विपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद
इस संसार के सम्पूर्ण प्राणियों में जब दु:ख ही नहीं है, तब सुख कहां से हो सकता है? यह सुख और दू:ख दोनों ही प्रकृतिस्थ प्राणियों के धर्म हैं, जो कि सब प्रकार के संसर्गदोष को स्वीकार करके उनके अनुसार चलते है। जिन्होंने ममता और अहंकार आदि के साथ सब कुछ त्याग दिया है, जिनके पुण्य ओर पाप सभी निवृत हो चुके हैं, ऐसे पुरूषों का जीवन ही कल्याणमय है। अब मैं राजा के कार्यों में जा सबसे श्रेष्ठ है, उसका वर्णन करता हूं । जनेश्वर! तुम धैर्ययुक्त बल और दान के द्वारा स्वर्गलोक पर विजय प्राप्त करो। जिसके पास बल ओर ओज है, वहीं मनुष्य धर्माचरण में समर्थ होता है। नरेश्वर! तुम ब्राह्मणों को सुख पहुंचाने के लिये ही सारी पृथ्वी का पालन करो। जैसे पहले इन ब्राह्मणों पर आक्षेप किया था, वैसे इन सबको अपने सदबर्ताव से प्रसन्न करो। वे बार–बार तुम्हें धिक्कारें और फटकारकर दूर हटा दें तो भी उनमें आत्मदृष्टि रखकर तुम यही निश्चय करो कि अब मैं ब्राह्मणों को नहीं मारूंगा। अपने कर्तव्यपालन के लिये पूरी चेष्टा करते हुए परम कल्याण का साधन करो। परंतप! कोई राजा बर्फ के समान शीतल होता है, कोई अग्नि के समान ताप देने वाला होता है, कोई यमराज के समान भयानक जान पड़ता है, कोई घास–फूस का मूलोच्छेद करने वाले हल के समान दुष्टों का समूल उन्मूलन करने वाला होता है तथा कोई पापा–चारियों पर अकस्मात् वज्र के समान टूट पड़ता है। कभी मेरा अभाव नहीं हो जाय, ऐसा समझकर राजा को चाहिये कि दुष्ट पुरूषों का संग कभी न करे। न तो उनके किसी विशेष गुण पर आकृष्ट हो, न उनके साथ अविच्छिन्न संबंध स्थापित करे और न उनमें अत्यंत आसक्त ही हो। यदि कोई शास्त्रविरूद्ध कर्म बन जाय तो उसके लिये पश्चाताप करने वाला पुरूष पाप से मुक्त हो जाता है। यदि दूसरी बार पाप बन जाय तो ‘अब फिर ऐसा काम नहीं करूंगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करने से वह पापमुक्त हो सकता है। ‘आज से केवल धर्म का ही आचरण करुंगा’ ऐसा नियम लेने से वह तीसरी बार के पाप से छुटकारा पा जाता है और पवित्र तीर्थों में विचरण करने वाला पुरूष अनेक बार के लिये हुए बहुसंख्यक पापों से मुक्त हो जाता है। सुख की अभिलाषा रखने वाले पुरूष को कल्याणकारी कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिये। जो सुगन्धित पदार्थों का सेवन करते हैं, उनके शरीर से सुगन्ध निकलती है और जो सदा दुर्गन्ध का सेवन करते हैं, वे अपने शरीर से दुर्गन्ध ही फैलाते है। जो मनुष्य तपस्या में तत्पर होता है, वह तत्काल सारे पापों से मुक्त हो जाता है। लगातार एक वर्ष तक अग्निहोत्र करने से कलंकित पुरूष अपने ऊपर लगे हुए कलंक से छूट जाता है। तीन वर्षों तक अग्निकी उपासना करने से भ्रूणहत्यारा भी पापमुक्त हो जाता है। महासरोवर पुष्कर, प्रभास तीर्थ तथा उत्तर मानसरोवर आदि तीर्थों में सौ योजन तक की पैदल यात्रा करने से भी भ्रूणहत्या के पाप से छुटकारा मिल जाता है। प्राणियों की हत्या करने वाला मनुष्य जितने प्राणियों का वध करता है, उसी जाति के उतने ही प्राणियों को मृत्यु से छुटकारा दिला दे अर्थात् उनको मरने के संकट से छुड़ा दे तो वह उनकी हत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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