महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 157 श्लोक 1-16
सप्तञ्चाशदधिकशततम (157) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
सेमलका हार स्वीकार करना तथा बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश
भीष्मजी ने कहा-राजन्! मन–ही–मन ऐसा विचार कर सेमलने क्षुभित हो अपनी शाखाओं, डालियों तथा टहनियों को स्वयं ही नीचे गिरा दिया। वह वनस्पति अपनी शाखाओं, पत्तों और फूलों को त्याग कर प्रात:काल वायु के आने की प्रतीक्षा करने लगा। तत्पश्चात् सबेरा होने पर वायुदेव कुपित हो बडे़–बडे़ वृक्षों को धराशायी करते हुए उस स्थान पर आये, जहां वह सेमलका वृक्ष था। वायु ने देखा कि सेमल के पत्ते गिर गये हैं और उसकी श्रेष्ठ शाखाएं धराशायी हो गयी हैं। यह फूलों से भी हीन हो चुका है, तब वे बडे़ प्रसन्न हुए और जिसकी शाखाएं पहले बडी़ भंयकर थी, उस सेमलसे मुसकराते हुए इस प्रकार बोले। वायु ने कहा-शाल्मले! मैं भी रोष में भरकर तुम्हें ऐसा ही बना देना चाहता था। तुमने स्वयं ही यह कष्ट स्वीकार कर लिया है, तुम्हारी शाखाएं गिर गयीं, फूल पत्ते, डालियां और अंकुर सभी नष्ट हो गये। तुमने अपनी ही कुमति से यह विपत्ति मोल ली है। तुम्हें मेरे बल और पराक्रम का शिकार बनना पडा़ है। भीष्म जी कहते हैं- राजन्! वायु का यह वचन सुनकर सेमल उस समय लज्जित हो गया और नारदजी ने जो कुछ कहा था, उसे याद करके वह बहुत पछताने लगा। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार जो मूर्ख मनुष्य स्वयं दुर्बल होकर किसी बलवान् के साथ वैर बांध लेता है, वह सेमल के समान ही संताप का भागी होता है। अत: दुर्बल मनुष्य बलवानों के साथ वैर न करे। यदि वह करता है तो सेमल के समान ही शोचनीय दशा को पहुंचकर शोकमग्न होता है। महाराजा! महामनस्वी पुरूष अपनी बुराई करने–वालों पर वैरभाव नहीं प्रकट करते हैं। वे धीरे–धीरे ही अपना बल दिखाते है। खोटी बुद्धिवाला मनुष्य किसी बुद्धिजीवी पुरूष से वैर न बांधें, क्योकि घास–फूंसपर फैलनेवाली आग के समान बुद्धिमानों की बुद्धि सर्वत्र पहुंच जाती है। नरेश्वर! राजेन्द्र! पुरूष में बुद्धि के समान दूसरी कोई वस्तु नहीं है । संसार में जो बुद्धि-बल से युक्त है, उसकी समानता करने वाला दूसरा कोई पुरूष नहीं है। शत्रुओं का नाश करने वाले राजेन्द्र! इसलिये जो बालक, जड, अन्ध, बधिर तथा बल में अपने से बढा़–चढा़ हो, उसके द्वारा किये गये प्रतिकूल बर्ताव को भी क्षमा कर देना चाहिये; यह क्षमाभाव तुम्हारे भीतर विद्यमान है। महातेजस्वी नरेश! अठारह अक्षौहिणी सेनाएं भी बल में महात्मा अर्जुन के समान नहीं है। इन्द्र और पाण्डु के यश्स्वी पुत्र अर्जुन ने अपने बल का भरोसा करते हुए युद्ध में विचरते हुए यहां उन समस्त सेनाओं को मार डाला और भगा दिया। भरतनंदन! महाराज! मैंने तुमसे राजधर्म और आपद्धर्म का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, अब और क्या सुनना चाहते हो।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|