महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 168 श्लोक 1-19

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अष्‍टषष्‍टयधिकशेततम (168) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टषष्‍टयधिकशेततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

मित्र बनाने एवं न बनाने योग्‍य पुरूषों के लक्षण तथा कृतघ्र गौतम की कथा का आरम्भ

युधिष्ठिर ने कहा- कौरवकुल की प्रीति बढाने–वाले महाज्ञानी पितामह! मैं कुछ और प्रश्‍न आपके सामने उपस्थित कर रहा हूं। मेरे उन प्रश्‍नों का विवेचन कीजिये। सौम्‍य स्वभाव के मनुष्‍य कैसे होते हैं? किनके साथ प्रेम करना उत्‍तम होता है? वर्तमान और भविष्‍य में कोन–से मनुष्‍य उपकार करने में समर्थ होते हैं? उन सबका मुझसे वर्णन कीजिये। मेरी तो यह धारणा है कि जिस स्थान पर सुहृद खडे़ होते हैं वहां न तो प्रचुर धन काम दे स‍कता है और न सम्बन्धी तथा बन्धु-बान्धव ही ठ‍हर सकते हैं। हित की बात सुनने वाला सुहृद दुर्लभ है तथा हित‍कारी सुहृद भी दुर्लभ ही है। धर्मात्माओं में श्रेष्‍ठ पितामह! इन सब प्रश्‍नों का आप विशद विवेचन कीजिये। भीष्‍मजी ने कहा- राजा युधिष्ठिर! किन‍के साथ संधि (मित्रता) करनी चाहिये और किनके साथ नहीं? यह बात मैं तुम्हें ठीक–ठीक बता रहा हूं। तुम सब कुछ ध्‍यान देकर सुनो। जो लोभी, क्रुर, धर्मत्‍यागी, कपटी, शठ, क्षुद्र, पापाचारी, सब पर संदेह करने वाला, आलसी, दीर्घसूत्री, कुटिल निन्दित, गुरूपत्‍नीगामी, संकट के समय साथ छोड़कर चल देने वाला, दुरात्‍मा, निर्लज्‍ज, सब ओर पापपूर्ण दृष्टि डालने वाला, नास्तिक, वेदों की निंदा करने वाला, इन्द्रियों को खुला छोड़कर जगत में इच्‍छानुसार विचरने वाला, झूठा, सबके द्वेष का पात्र, अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर न रहने वाला, चुगल खोर, अपवित्र बुद्धिवाला, ईष्‍यालु, पापपूर्ण विचार रखने वाला, दुष्‍ट स्‍वभाव वाला, मन को वश में न रखने वाला, नृशंस, धूर्त, मित्रों की बुराई करने वाला, सदा दूसरों का धन लेने की इच्‍छा रखने-वाला, यथाशक्ति देने वाले पर भी संतुष्‍ट न रहने वाला, मंदबुद्धि, मित्रों को भी सदा धैर्य से विचलित करने वाला, असवाधान, बेमौके क्रोध करने वाला, अकस्‍मात् विरोधी होकर कल्‍याणकारी सुहृदों को शीघ्र ही त्‍याग देने वाला, अनजान में थोड़ा- सा भी अपराध बन जाने पर मित्र का अनिष्‍ट करने वाला, पापी, अपना काम बनाने के लिये ही मित्रों से मेल रखने वाला, वास्‍तव में मित्र द्वेषी, मुख से मित्रता से बातें करके भीतर से शत्रु भाव रखने वाला, कुटिल दृष्टि से देखने वाला, विपरितदर्शी, भलाई से कभी पीछे न हटने वाले मित्र को भी त्‍याग देने वाला, शराबी, द्वेषी, क्रोधी ,निर्दयी, क्रुर, दूसरों को सताने वाला, मित्रद्रोही, प्राणियों की हिंसा में तत्‍पर रहने वाला, कृतघ्‍न तथा नीच हो, संसार में ऐसे मनुष्‍य के साथ कभी संधि नहीं करनी चाहिये। जो दूसरों का छिद्र खोजता हो, वह भी संधि करने के योग्‍य नहीं है। अब संधि करने के योग्‍य पुरूषों को बता रहा हूं, सुनो। जो कुलीन, बोलने में समर्थ, ज्ञान-विज्ञान में कुशल, रूपवान, गुणवान, लोभहीन, काम करने से कभी न थकने वाला, अच्‍छे मित्रों से सम्‍पन्‍न, कृतज्ञ, सर्वज्ञ, लोभ से दूर रहने वाला, मधुर स्‍वभाव वाले, सत्‍यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, सदा व्‍यायामशील, उत्‍तम कुल की संतान, अपने कुल का भार वहन करने में समर्थ, दोषशून्‍य तथा लोक में विख्‍यात हो- ऐसे मनुष्‍यों को राजा अपना मित्र बनावे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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