महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 182-195
प्रथम (1) अध्याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)
संजय ! जब मैंने सुना कि रथ के पिछले भाग में स्थित मोहग्रस्त अर्जुन अत्यन्त दुखी हो रहे थे और श्रीकृष्ण ने अपने शरीर में उन्हें सब लोकों का दर्शन करा दिया, तभी मेरे मन से विजय की सारी आशा समाप्त हो गयी। जब मैंने सुना कि शत्रुघाती भीष्म रणांगण में प्रति दिन दस हजार रथियों का संहार कर रहे हैं, परंतु पाण्डवों का कोई प्रसिद्ध योद्धा नहीं मारा जा रहा हैं, संजय ! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी। जब मैंने सुना कि परम धार्मिक गंगानन्दन भीष्म ने युद्ध भूमि में पाण्डवों को अपनी मृत्यु का उपाय स्वयं बता दिया और पाण्डवों ने प्रसन्न होकर उनकी उस आज्ञा का पालन किया। संजय ! तभी मुझे विजय की आशा नहीं रही। जब मैंने सुना कि अर्जुन ने सामने शिखण्डी को खड़ा करके उसकी ओट से सर्वथा अजय अत्यन्त शूर भीष्म पितामह को युद्ध भूमि में गिरा दिया। संजय ! तभी मेरी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब मैंने सुना कि हमारे वृद्धवीर भीष्म पितामह अधिकांश सोमकवंशी योद्धाओं का वध करके अर्जुन के बाणों से क्षत-विक्षत शरीर हो शरशय्या पर शयन कर रहे हैं, संजय ! तभी मैंने समझ लिया अब मेरी विजय नहीं हो सकती। संजय ! जब मैंने सुना कि शान्तनु नन्दन भीष्म पितामह ने शरशय्यापर सोते समय अर्जुन को संकेत किया और उन्होंने बाण से धरती का भेदन करके उनकी प्यास बुझा दी, तब मैंने विजय की आशा त्याग दी। जब वायु अनुकूल बहकर और चन्द्रमा-सूर्य लाभ स्थान में संयुक्त होकर पाण्डवों की विजय की सूचना दे रहे हैं और कुत्ते आदि भयंकर प्राणी प्रति दिन हम लोगों को डरा रहे हैं। संजय ! तब मैंने विजय के सम्बन्ध में अपनी आशा छोड़ दी। संजय ! हमारे आचार्य द्रोण बेजोड़ योद्धा थे और उन्होंने रणांगण में अपने अस्त्र-शस्त्र के अनेकों विविध कौशल दिखलाये, परंतु जब मैंने सुना कि वे वीर शिरोमणि पाण्डवों में से किसी एक का भी वध नहीं कर रहे हैं, तब मैंने विजय की आशा त्याग दी। संजय ! मेरी विजय की आशा तो तभी नहीं रही, जब मैंने सुना कि मेरे जो महारथी वीर संशप्तक योद्धा अर्जुन के वध के लिये मोर्चे पर डटे हुए थे, उन्हें अकेले ही अर्जुन ने मौत के घाट उतार दिया। संजय ! स्वयं भारद्वाज द्रोणाचार्य अपने हाथ में शस्त्र उठाकर उस चक्रव्यूह की रक्षा कर रहे थे, जिसको कोई दूसरा तोड़ ही नहीं सकता था, परंतु सुभद्रानन्दन वीर अभिमन्यु अकेला ही छिन्न-भिन्न करके उसमें घुस गया, जब यह बात मेरे कानों तक पहुँची, तभी मेरी विजय की आशा लुप्त हो गयी।
जिस दिन मैंने यह बात सुनी कि मत्स्यराज विराट ने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री उत्तरा को अर्जुन के हाथ अर्पित कर दिय, परंतु अर्जुन ने अपने लिये नहीं, अपने पुत्र के लिये उसे स्वीकार किया, संजय ! उसी दिन से मैं विजय की आशा नहीं करता था। (वामनावतार के समय) यह सम्पूर्ण पृथ्वी जिनके एक डग में ही आ गयी बतायी जाती है, वे लक्ष्मी पति भगवान श्रीकृष्ण पूरे हृदय से पाण्डवों की कार्य-सिद्धि के लिये तत्पर हैं, जब यह बात मैंने सुनी, संजय ! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही। जब देवर्षि नारद के मुख से मैंने यह बात सुनी कि श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात नर और नारायण हैं और इन्हें मैंने ब्रह्मलोक में भली भाँति देखा है, तभी से मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय ! जब मैंने सुना कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण लोक कल्याण के लिये शान्ति की इच्छा से आये हुए हैं और कौरव-पाण्डवों में शान्ति सन्धि करवाना चाहते हैं, परंतु वे अपने प्रयास में असफल होकर लौट गये तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|