महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 174 श्लोक 1-13
चतुसप्तत्यधिकशततम (174) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
शोकाकुल चित की शांति के लिये राजा सेनजित और ब्राह्मण के संवाद का वर्णन
राजा युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! यहां तक आपने राजधर्मसंबंधी श्रेष्ठ धर्मों का उपदेश दिया। पृथ्वीनाथ, अब आप आश्रमियों के उत्तम धर्म का वर्णन कीजिये। भीष्मजी बोले- युधिष्ठिर, वेदों में सर्वत्र सभी आश्रमों के लिये स्वर्गसाधक यथार्थ फल की प्राप्ति कराने वाली तपस्या का उल्लेख हैं धर्म के बहुत-से द्वार हैं। संसार में कोई ऐसी क्रिया नहीं है, जिसका कोई फल न हो। भरतश्रेष्ठ, जो जो पुरूष जिस–जिस विषय में पूर्ण निश्चय को पहुंच जाता है (जिसके द्वारा उसे अभीष्ट सिद्धि का विश्वास हो जाता है), उसी को वह कर्तव्य समझता है। दूसरे विषय को नहीं। मनुष्य जैसे-जैसे संसार के पदार्थों को सारहीन समझता है, वैसे ही वैसे इनमें वैराग्य होता जाता है, इसमें संशय नहीं है। युधिष्ठिर, इस प्रकार यह जगत अनेक दोषों से परिपूर्ण है, ऐसा निश्चय करके बुद्धिमान पुरूष अपने मोक्ष के लिये प्रयत्न करे। युधिष्ठिर ने पूछा- दादाजी, धन के नष्ट हो जाने पर अथवा स्त्री, पुत्र या पिता के मर जाने पर किस बुद्धि से मनुष्य अपने शोक का निवारण करे? यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- वत्स! जब धन नष्ट हो जाय अथवा स्त्री, पुत्र या पिता की मुत्यु हो जाय, तब ‘ओह, संसार कैसा दुखमय है’ यह सोचकर मनुष्य शोक को दूर करने वाले शम – म आदि साधनों का अनुष्ठान करे। इस विषय में किसी हितैषी ब्राह्मण ने राजा सेनजित के पास आकर उन्हें जैसा उपदेश दिया था, उसी प्राचीन इतिहास को विज्ञ पुरूष दृष्टांत के रूप में प्रस्तुत किया करते है। राजा सेनजित् के पुत्र की मृत्यु हो गयी थी। वे उसी के शोक की आग से जल रहे थे। उनका मन विषाद में डूबा हुआ था। उन शेकविहल नरेश को देखकर ब्राह्मण ने इस प्रकार कहा- ‘राजन्! तुम मूढ़ मनुष्य की भांति क्यों मोहित हो रहे हो? शोक के योग्य तो तुम स्वयं ही हो, फिर दूसरों के लिये क्यों शोक करते हो? अजी, एक दिन ऐसा आयेगा, जब कि दूसरे शोचनीय मनुष्य तुम्हारे लिये भी शोक करते हुए उसी गति को प्राप्त होंगे। ‘पृथ्वीनाथ, तुम, मैं और ये दूसरे लोग जो इस समय तुम्हारे पास बैठे है, सब वहीं जायंगे, जहां से हम आये है’। सेनजित ने पूछा- तपस्या के धनी ब्राह्मण देव, आपके पास ऐसी कौन–सी बुद्धि, कौन तप, कौन समाधि, कैसा ज्ञान और कौन–सा शास्त्र है, जिसे पाकर आपको किसी प्रकार का विषाद नहीं है। सुख और दु:ख का चक्र घूमता रहता है। मैं सुख में हर्ष से फूल उठता हूं और दु:ख में खिन्न हो जाता हूं। ऐसी अवस्था में पड़े हुए अपने–आप के लिये मुझे निरंतर शोक होता है। यह शोक मेरे हृदय में डेरा डाले बैठा है।। ब्राह्मण ने कहा- राजन, देखों इस संसार में उत्तम, मध्मय और अधम सभी प्राणी भिन्न–भिन्न कर्मों में आसक्त हो दुख से ग्रस्त हो रहे हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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