चतुसप्तत्यधिकशततम (174) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-57 का हिन्दी अनुवाद
जिसके कारण शोक, ताप अथवा दु:ख हो, या जिसके कारण अधिक श्रम उठाना पड़े, वह दुख का मूल कारण अपने शरीर का एक अंग भी हो तो उसे त्याग देना चाहिये । मनुष्य जब किसी भी पदार्थ में ममत्व कर लेता है, तब वे ही सब उसके वैसे दुख के कारण बन जाते है। वह कामनाओं में से जिस–जिस का परित्याग कर देता है, वहीं उसके सुख की पूर्ति करने वाली हो जाती है । उसे पुरूष कामनाओं का अनुसरण करता है, वह उन्हीं के पीछे नष्ट हो जाता है। संसार में जो कुछ इस लोक के भोगों का सुख है और जो स्वर्ग का महान सुख है, वे दोनों तृष्णक्षय से होने वाले सुख की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। मनुष्य बुद्धिमान हो, मूर्ख हो अथवा शूरवीर हो, उसने पूर्वजन्म में जैसा शुभ या अशुभ कर्म किया है, उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता है। इस प्रकार जीवों को प्रिय–अप्रिय और सुख–दुख की प्राप्ति बार–बार क्रम से होती ही रहती है, इसमें संदेह नहीं है। ऐसी बुद्धि का आश्रय लेकर कामनाओं के त्यागरूपी गुण से युक्त हुआ मनुष्य सुख से रहता है, इसलिये सब प्रकार के भोगों से विरक्त होकर उन्हें पीठ–पीछे कर दे, अर्थात् उन से विमुख हो जाय। हृदय से उत्पन्न होने वाला यह काम हृदय मे ही पुष्ट होता है, फिर यही मृत्यु का रूप धारण कर लेता है। क्योंकि (जब इसकी सिद्धि में कोई बाधा आती है, तब) विद्वानों द्वारा यही प्राणियों के शरीर के भीतर क्रोध के नाम से पुकारा जाता है। कछुआ जैसे अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार यह जीव जब अपनी सब कामनाओं का संकोच कर देता है तब यह अपने विद्ध अन्त:करण में ही स्वयं प्रकाशस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है। जब यह किसी से भय नहीं मानता और इससे भी किसी को भय नहीं होता, तथा जब यह किसी वस्तुओं न तो चाहता है और न उससे द्वेष ही करता है, तब परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। जब यह साधक सत्य और असत्य अर्थात् जगत् के व्यक्त और अव्यक्त पदार्थों का, शोक और हर्ष का, भय और अभय का तथा प्रिय और अप्रिय आदि समस्त द्वन्दों का परित्याग कर देता है, तब उसका चित शांत हो जाता है। जब धैर्यसम्पन्न ज्ञानवान् पुरूष किसी भी प्राणी के प्रतिमन, वाणी और क्रियाद्वारा पापपूर्ण बर्ताव नहीं करता, तब परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। खोटी बुद्धिवाले मनुष्यों के लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो मनुष्य के जीर्ण (वृद्ध) हो जाने पर भी स्वंय कभी जीर्ण नहीं होती, तथा जो प्राणों के साथ जाने वाला रोग बनकर रहती है, उस तृष्णा को जो त्याग देता है, उसी को सुख मिलता है। राजन्, इस विषय में पिङग्लाकी गायी हुई गाथाएं सुनी जाती है, जिसके अनुसार चलकर संकटकाल में भी उसने सनातन धर्म को प्राप्त कर लिया था। एक बार पिंग्ला वेश्या बहुत देर तक संकेत स्थान पर बैठी रहीं, तब भी उसका प्रियतम उसके पास नहीं आया, इससे वह बड़े कष्ट में पड़ गयी, तथापि शांत रहकर इस प्रकार विचार करने लगी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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