सप्तसप्तत्यधिकशततम (177) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद
‘’जो मनुष्य अपनी समस्त कामनाओं को पा लेता है, तथा जो इन सबका केवल त्याग कर देता है—इन दोनों के कार्यों में समस्त कामनाओं को प्राप्त करने की अपेक्षा उनका त्याग ही श्रेष्ठ है। ‘कोई भी पहले कभी धन आदि के लिये होने वाली सम्पूर्ण प्रवृतियों का अंत नहीं पा सका है। शरीर और जीवन के प्रति मूर्ख मनुष्य की ही तृष्णा बढ़ती है। ‘ओ कामनाओं के दास मन, तू सब प्रकार की चेष्टाओं से निवृत हो जा और वैराग्यपूर्वक शांति धारण कर। तू धन की चेष्टा करके बारंबार ठगा गया है तो भी उसकी ओर से वैराग्य नहीं होता है। ‘ओ धन की कामनावाले मन, यदि तुझे मेरा विनाश नहीं करना है, यदि तू इसी प्रकार मेरे साथ आनन्दपूर्वक रहना चाहता है तो मुझे व्यर्थ लोभ में न फंसा। ‘तूने बार–बार द्रव्य का संचय किया और वह बारंबार नष्ट होता चला गया। धन की इच्छा रखने वाले मूढ़, क्या कभी तू धन की इस तृष्णा और चेष्टा का त्याग भी करेगा ? ‘अहो, यह मेरी कैसी नादानी है? जो मैं तेरे हाथ का खिलौना बना हुआ हूं । यदि ऐसी बात न होती तो क्या कोई समझदार पुरूष कभी दूसरों की दासता स्वीकार कर सकता है? ‘पूर्वकाल के तथा पीछे के मनुष्य भी कभी कामनाओं का अंत नहीं पा सके है, अत: मैं समस्त कर्मो का आयोजन त्यागकर सावधान हो गया हूं और मैं पूर्णत जग गया हूं। ‘काम, निश्चय ही तेरा हृदय फौलाद का बना हुआ है, अत: एव अत्यंत सुदृढ़ है। यही कारण है कि सैकडों अनर्थो से व्याप्त होने पर भी इसके सैकड़ों टुकड़ें नही हो जाते। ‘काम, मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूं और जो कूछ तुम्हें प्रिय लगता है, उससे भी परिचित हूं। चिरकाल से तेरा प्रिय करने की चेष्टा करता चला आ रहा हूं, परंतु कभी मेरे मन में सुख का अनुभव नहीं हुआ। ‘काम! मैं तेरी जड को जानता हूं। निश्चय ही तू संकल्प से उत्पन्न होता है। अब मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा, जिससे तू समूल नष्ट हो जाएगा। “धन की इच्छा अथवा चेष्टा सुखदायिनी नहीं है। यदि धन मिल भी जाय तो उसकी रक्षा आदि के लिये बडी भारी चिन्ता बढ़ जाती है और यदि एक बार मिलकर वह नष्ट हो जाय, तब तो मृत्यु के समान ही भंयकर कष्ट होता है और उघोग करने पर भी धन मिलेगा या नहीं, यह निश्चय नहीं होता। ‘शरीर को निछावर कर देने पर भी मनुष्य जब धन नहीं पाता है तो उसके लिये इससे बढ़कर महान् दु:ख और क्या हो सकता है? यदि धन की उपलब्धि हो भी जाय तो उतने से ही वह संतुष्ट नहीं होता है अपितु अधिक धन की तलाश करने लग जाता है ।।२७।। ‘काम! स्वादिष्ट गड़ाजल के समान यह धन तृष्णा की ही वृद्धि करने वाला है। मैं अच्छी तरह जान गया हूं कि यह तृष्णा की वृद्धि मेरे विनाश का कारण है; अत: तू मेरा पिण्ड छोड़ दे। ‘मेरे इस शरीर का आश्रय लेकर जो पांचों भूतों का समुदाय स्थित है, वह इसमें से अपनी इच्छा के अनुसार सुख पूर्वक चला जाय या इसमें रहे, इसकी मुझे परवा नहीं है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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