महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 184 श्लोक 1-15
चतुरशीत्यधिकशततम (184) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
पञ्चहाभूतों के गुणों का विस्तार पूर्वक वर्णन
भरद्वाज ने पूछा- भगवन्! लोक में ये पांच धातु ही ‘महाभूत’ कहलाते हैं, जिन्हें ब्रह्माने सृष्टि के आदि में रचा था। ये ही इन समस्त लोकों में व्याप्त है । परंतु जब महाबुद्धिमान् ब्रह्माजी ने और भी हजारों भूतों की रचना की है, तब इन पांचों को ही ‘भूत’ कहना कहां तक युक्तिसंगत है? भृगुजी ने कहा- मुने! ये पांच भूत ही असीम हैं, इसलिये इन्हीं के साथ ‘महा’ शब्द जोड़ा जाता है । इन्हीं से भूतों की उत्पति होती है; अत: इन्हीं के लिये ‘महाभूत’ शब्द का प्रयोग सुसंगत है। प्राणियों का शरीर इन पांच महाभूतों का ही संघात है । इसमें जो चेष्टा या गति है, वह वायु का भाग है । जो खोखलापन है, वह आकाश का अंश है । उष्मा (गर्मी) अग्नि का अंश है। लोहू आदि तरल पदार्थ जल के अंश हैं और हड्डी, मांस आदि ठोस पदार्थ पृथ्वी के अंश है। इस प्रकार सारा स्थावर–जंगम जगत् इन पांच भूतों से युक्त है। इन्हीं के सूक्ष्म अंश श्रोत्र (कान), घ्राण (नासिका), रसना, त्वचा और नेत्र-इन पॉच इन्द्रियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। भरद्वाज ने पूछा- भगवन्! आपके कथनानुसार यदि समस्त स्थावर–जंगम पदार्थ इन पांच महाभूतों से ही संयुक्त हैं तो स्थावरों के शरीरों में तो पांच भूत नहीं दिखायी देते हैं। वृक्षों के शरीर में गर्मी नही है, कोई चेष्टा भी नहीं है तथा वास्तव में वे घन है; अत: उनके शरीर में पांचों भूतों की उपलब्धि नहीं हेाती है। वे न सूनते हैं, न देखते हैं, न गन्ध और रसका ही अनुभव करते हैं और न उन्हें स्पर्श का ही ज्ञान होता है; फिर वे पाञ्चभौतिक कैसे कहे जाते हैं? उनमें न तो द्रवत्व देखा जाता है, न अग्नि का अंश, न पृथ्वी और वायु का ही भाग उपलब्ध होता है। आकाश तो अप्रमेय है; अत: वह भी वृक्षों में नहीं है, इसलिये वृक्षों की पाञ्चभौतिकता नहीं सिद्ध होती है। भृगुजी ने कहा- मुने! यद्यपि वृक्ष ठोस जान पड़ते हैं तो भी उनमें आकाश हैं, इसमें संशय नहीं है। इसी से उनमें नित्यप्रति फल–फूल आदि की उत्पत्ति सम्भव हो जाती है। वृक्षों के भीतर जो ऊष्मा या गर्मी है, उसीसे उनके पत्ते, छाल,फल फूल, कुम्हलाते हैं, मुरझाकर झड़ जाते है; इससे उनमे स्पर्श का होना भी सिद्ध होता है। यह भी देखा जाता है कि वायु, अग्नि और बिजली की कड़क आदि भीषण शब्द होने पर वृक्षों के फल-फूल झड़कर गिर जाते हैं। शब्द का ग्रहण तो श्रवणेन्द्रिय से ही होता है; इससे यह सिद्ध हुआ कि वृक्ष भी सुनते हैं। लता वृक्ष को चारों ओर से लपेट लेती है और उसके ऊपरी भाग तक चढ़ जाती है। बिना देखे किसी के अपने जाने का मार्ग नहीं मिल सकता; इससे सिद्ध है कि वृक्ष देखते भी हैं। पवित्र और अपवित्र गन्ध से तथा नाना प्रकार के धूपों की गन्ध से वृक्ष निरोग होकर फूलने–फलने लग जाते है; इससे प्रमाणित होता है कि वृक्ष भी सुंघते हैं। वृक्ष अपने जड़ से जल पीते हैं और कोई रोग होने पर जड़ में ओषधि डालकर उनकी चिकित्सा भी की जाती है; इससे सिद्ध है कि वृक्ष में रसनेन्द्रिय भी है।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|