महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 187 श्लोक 1-14
सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना
भृगुजी ने कहा- ब्रह्मन! जीव का तथा उसके दिये हुए दान एवं किये हुए कर्म का भी कभी नाश नहीं होता है। जीव तो दूसरे शरीर में चला जाता है, केवल उसका छोडा़ हुआ शरीर ही यहां नष्ट होता है। शरीर के आश्रय से रहने वाला जीव उसके नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। जैसे समिधाओं के आश्रित हुई आग उनके जल जाने पर भी देखी जाती है, उसी प्रकार जीव की सत्ता का भी प्रत्यक्ष अनुभव होता है। भरद्वाज ने पूछा- भगवन्! यदि अग्नि के समान जीव का नाश नहीं होता तो ईंधन के जल जाने पर वह भी तो बुझ ही जाती है; फिर उसकी तो उपलब्धि नहीं होती है। अत: मैं ईंधनरहित बुझी हुई आग को यही समझता हूं कि वह नष्ट हो गयी; क्योंकि जिसकी गति, प्रमाण अथवा स्थिति नहीं है, उसका नाश भी मानना पड़ता है। यही दशा जीव की भी है। भृगुजी ने कहा- मुने! समिधाओं के जल जाने पर अग्नि का नाश नहीं होता। वह आकाश में अव्यक्तरूप से स्थित हो जाती है, इसलिये उसकी उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि बिना किसी आश्रय के अग्नि का ग्रहण होना अत्यन्त कठिन है। उसी प्रकार शरीर को त्याग देने पर जीव आकाश की भांति स्थित होता है। वह अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण बुझी हुई आग के समान अनुभव में नहीं आता, परंतु रहता अवश्य है; इसमें संशय नहीं है। अग्नि प्राणों को धारण करती है। जीव को उस अग्नि के समान ही ज्योतिर्मय समझो। उस अग्नि को वायु देह के भीतर धारण किये रहती है। श्वास रूक जाने पर वायु के साथ–साथ अग्नि भी नष्ट हो जाती है। उस शरीराग्नि के नष्ट होने पर अचेतन शरीर पृथ्वी पर गिरकर पार्थिवभाव को प्राप्त हो जाता है; क्योंकि पृथ्वी ही उसका आधार है। समस्त स्थावरों और जंगमों की प्राणवायु आकाश को प्राप्त होती है और अग्नि भी उस वायु का ही अनुसरण करती है। इस प्रकार आकाश, वायु और अग्नि- ये तीन तत्त्व एकत्र हो जाते हैं और जल तथा पृथ्वी–दो तत्त्व भूमि पर ही रह जाते हैं। जहां आकाश होता है, वहीं वायु की स्थिति होती है और जहां वायु होती है, वहीं अग्नि भी रहती है। ये तीनों तत्तव यद्यपि निराकर हैं तथापि देहधारियों के शरीरों में स्थित होकर मूर्तिमान् समझे जाते हैं। भरद्वाज ने पूछा- निष्पाप मुनिवर! यदि देहधारियों के शरीर मे केवल अग्नि, वायु, भूमि, आकाश और जल–तत्त्व ही विद्यमान है तो उनमें रहने वाले जीव के क्या लक्षण हैं? यह मुझे बताइये। प्राणियों का शरीर पांचभौतिक है। पांच विषयों में इसकी रति हैं। इसमे पांच ज्ञानेन्द्रियां और चित्त उपलब्ध होते हैं। इसमें रहनेवाले जीव का स्वरूप कैसा है; इस बात को मैं जानना चाहता हूं। रक्त और मांस के समूह, चर्बी, नाड़ी और हड्डियों के संग्रहरूपी इस शरीर को चीरने–फाड़ने पर इसके भीतर कोई जीव नहीं उपलब्ध होता। यदि इस पांचभौतिक शरीर को जीवरहित मान लिया जाय, तब प्रश्न यह होता है कि शरीर अथवा मन में पीड़ा होने पर उसके कष्ट का अनुभव कौन करता है?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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