महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-19

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चालीसवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: चालीसवाँ अध्याय: श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद

भृगुवंशी विपुल के द्वारा योगबल से गुरुपत्‍नी के शरीर में प्रवेश करके उसकी रक्षा करना। भीष्‍म जी ने कहा-महाबाहो! कुरुनन्‍दन! ऐसी ही बात है। नरेश्‍वर! नारियों के सम्‍बन्‍ध में तुम जो कुछ कह रहे हो, उसमें तनिक भी मिथ्‍या नहीं है। इस विषय में मैं तुम्‍हें एक प्राचीन इतिहास बताऊँगा कि पूर्वकाल में महात्‍मा विपुल ने किस प्रकार एक स्‍त्री (गुरुपत्‍नी)-की रक्षा की थी। भरतश्रेष्‍ठ! नरेश्‍वर! ब्रम्हा ने जिस प्रकार और जिस उद्देश्य से युवतियों की सृष्टि की है, वह सब मैं तुम्‍हें बताऊँगा। बेटा! स्त्रियों से बढ़कर पापिष्‍ठ दूसरा कोई नहीं है। यौवन-मद से उन्‍मत रहने वाली स्त्रियाँ वास्‍तव में प्रज्‍वलित अग्नि के समान हैं। प्रभो! वे मयदानव की रची हुई माया हैंं। शत्रुदमन! तब वे देवता ब्रम्हाजी के पास गये और उनसे अपने मन की बात निवदेन करके मुँह नीचे किये चुपचाप बैठ गये। उन देवताओं के मन की बात जानकर भगवान ब्रम्हा ने मनुष्‍यों को मोह में डालने के लिये कृत्‍यारूप नारियों की सृष्टि की। कुन्‍तीनन्‍दन! सृष्टि के प्रारम्‍भ में यहाँ सब स्त्रियाँ पतिव्रता ही थीं। कृत्‍यारूप दुष्‍ट स्त्रियाँ तो प्रजापति की इस नूतन सृष्टि से ही उत्‍पन्‍न हुई हैं। प्रजापति ने उन्‍हें उनकी इच्‍छा के अनुसार कामभाव प्रदान किया। वे मतवाली युवतियाँ कामलोलुप होकर पुरुषों को सदा बाधा देती रहती हैं। देवेश्‍वर भगवान ब्रम्हा ने काम की सहायता के लिये क्रोध को उत्‍पन्‍न किया। इन्‍हीं काम और क्रोध के वशीभूत होकर स्‍त्री और पुरुष रूप सारी प्रजा आसक्‍त होती है। ब्राम्हण, गुरु, महागुरु, और राजा-इन सबको स्‍त्री के क्षणिक संग से कामजनित यातना सहनी पड़ती है। जिनका मन कहीं आसक्‍त नहीं है, जिन्‍होंने ब्रम्हचार्य के पालनपूर्वक अपने अन्‍त:करण को निर्मल बना लिया है तथा जो तपस्‍या, इन्द्रियसंयम और ध्‍यान-पूजन में संलग्‍न हैं, उन्‍हीं की उत्तम शुद्धि होती है। स्त्रियों के लिये किन्‍हीं वैदिक कर्मों के करने का विधान नहीं है। यही धर्मशास्‍त्र की व्‍यवस्‍था है। स्त्रियाँ इन्द्रियशून्‍य हैं अर्थात वे अपनी इन्द्रियों को वश में रखने में असमर्थ हैं। ऐसा उनके विषय में श्रुति का कथन है। प्रजापति ने स्त्रियों को शय्‍या, आसन, अलंकार, अन्‍न, पान, अनार्यता, दुर्वचन, प्रियता तथा रति प्रदान की है। तात! लोकसृष्टा ब्रम्हा-जैसा पुरुष भी स्त्रियों की किसी प्रकार रक्षा नहीं कर सकता, फिर साधारण पुरुषों की तो बात ही क्‍या? वाणी के द्वारा एवं वध और बन्‍धन के द्वारा रोककर अथवा नाना प्रकार के क्‍लेश देकर भी स्त्रियों की रक्षा नहीं की जा सकती; क्‍योंकि वे सदा असंयमशील होती हैं। पुरुषसिंह! पूर्वकाल में मैंने यह सुना था कि प्राचीनकाल में महात्‍मा विपुल ने अपनी गुरुपत्‍नी की रक्षा की थी। कैसे की ? यह मैं तुम्‍हें बता रहा हूँ। पहले की बात है, देव शर्मा नाम के एक महाभाग्‍यशाली ॠषि थे। उनकी रुचि नामवाली एक स्‍त्री थी जो इस पृथ्‍वी पर अद्वितीय सुन्‍दरी थी। उसका रूप देखकर देवता, गन्‍धर्व और दानव भी मतवाले हो जाते थे। राजेन्‍द्र! वृत्रासुर का वध करने वाले पाकशासन इन्‍द्र उसी स्‍त्री पर विशेष रूप से आसक्‍त थे। महामुनि देव शर्मा नारियों के चरित्र को जानते थे; अत: वे यथाशक्ति उत्‍साहपूर्वक उसकी रक्षा करते थे।। वे यह भी जानते थे कि इन्‍द्र बड़ा ही पर-स्‍त्रीलम्‍पट है, इसलिये वे अपनी स्‍त्री की उनसे यत्‍नपूर्वक रक्षा करते थे। तात! एक समय ॠषि ने यज्ञ करने का विचार किया। उस समय वे यह सोचने लगे कि ‘यदि मैं यज्ञ में लग जाऊँ तो मेरी स्‍त्री की रक्षा कैसे होगी।' फिर उन महातपस्‍वी ने मन-ही-मन उसकी रक्षा का उपाय सोचकर अपने प्रिय शिष्‍य भृगुवंशी विपुल को बुलाकर कहा । देव शर्मा बोले- वत्‍स! मै यज्ञ करने के लिये जाऊँगा। तुम मेरी इस पत्‍नी रुचि की यत्‍नपूर्वक रक्षा करना; क्‍योंकि देवराज इन्‍द्र सदा इसको प्राप्‍त करने की चेष्‍टा में लगा रहता है। भृगुश्रेष्‍ठ! तुम्‍हें इन्‍द्र की ओर से सदा सावधान रहना चाहिये; क्‍योंकि वह अनेक प्रकार के रूप धारण करता है। भीष्‍मजी कहते हैं- राजन! गुरु के ऐसा कहने पर अग्नि और सूर्य के समान तेजस्‍वी, जितेन्द्रिय तथा सदा ही कठोर तप में लगे रहने वाले धर्मज्ञ एवं सत्‍यवादी विपुल ने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्‍वीकार कर ली। महाराज! फिर जब गुरुजी प्रस्‍थान करने लगे तब उसने पुन: इस प्रकार पूछा। विपुल ने पूछा- मुने! इन्‍द्र जब आता है तब उसके कौन-कौन-से रूप होते हैं तथा उस समय उसका शरीर और तेज कैसा होता है? यह मुझे स्‍पष्‍ट रूप से बताने की कृपा करें। भीष्‍मजी कहते हैं- भरतनन्‍दन! तदनन्‍तर भगवान देव शर्मा ने महात्‍मा विपुल से इन्‍द्र की माया को यर्थाथ रूप से बताना आरम्‍भ किया। देव शर्मा ने कहा- ब्रम्हर्षे! भगवान पाकशासन इन्‍द्र बहुत-सी मायाओं के जानकार हैं। वे बारंबार बहुत-से रूप बदलते रहते हैं। बेटा! वे कभी तो मस्‍तक पर किरीट-मुकुट, कानों में कुण्‍डल तथा हाथों में वज्र एवं धनुष धारण किये आते हैं और कभी एक ही मुहुर्त में चाण्‍डाल के समान दिखायी देते हैं, फिर कभी शिखा, जटा और चीर वस्‍त्र धारण करने वाले ॠषि बन जाते हैं। कभी विशाल एवं हष्‍ट-पुष्‍ट शरीर धारण करते हैं तो कभी दुर्बल शरीर में चिथड़े लपेटे दिखायी देते हैं। कभी गोरे, कभी सांवले और कभी काले रंग के रूप बदलते रहते हैं। वे एक ही क्षण में कुरूप और दूसरे ही क्षण में रूपवान हो जाते हैं। कभी जवान और कभी बूढ़े बन जाते हैं। कभी ब्राम्हण बनकर जाते हैं तो कभी क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र का रूप बना लेते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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