महाभारत आदि पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-20
अठारह अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! तदनन्तर सम्पूर्ण देवता मिलकर पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल को उखाड़ने के लिये उसके समीप गये। वह पर्वत श्वेत मेघ खण्डों के समान प्रतीत होने वाले गगनचुम्बी शिखरों से सुशोभित था। सब ओर फैली हुई लताओं के समुदाय ने उसे आच्छादित कर रखा था। उस पर चारों ओर भाँति- भाँति के विहंगम कलरव कर रहे थे। बड़ी-बड़ी दाढ़ों वाले व्याघ्र सिंह आदि अनेक हिंसक जीव वहाँ सर्वत्र भरे हुए थे। उस पर्वत के विभिन्न प्रदेशों में किन्नरगण, अप्सराएँ तथा देवता लोग निवास करते थे। उसकी ऊँचाई ग्यारह हजार योजन थी और भूमि के नीचे भी वह उतने ही सहस्त्र योजनों में प्रतिष्ठित था। जब देवता उसे उखाड़ न सके, तब वहाँ बैठे हुए भगवान विष्णु और ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले ‘आप दोनों इस विषय में कल्याणमयी उत्तम बुद्धि प्रदान करें और हमारे हित के लिये मन्दराचल पर्वत को उखाड़ने का यत्न करें।'उग्रश्रवाजी कहते हैं—भृगुनन्दन ! देवताओं के ऐसा कहने पर ब्रह्माजी सहित भगवान विष्णु ने कहा--‘तथास्तु (ऐसा ही हो)।' तदनन्तर जिनका स्वरूप मन, बुद्धि एवं प्रमाणों की पहुँच से परे है, उन कमल नयन भगवान विष्णु ने नागराज अनन्त को मन्दराचल उखाड़ने के लिये आज्ञा दी। जब ब्रह्माजी ने प्रेरणा दी और भगवान नारायण ने भी आदेश दे दिया, तब अतुल पराक्रमी अनन्त (शेषनाग) उठकर उस कार्य में लगे। ब्रह्मन ! फिर तो महाबली अननन्त ने जोर लगाकर गिरिराज मन्दराचल को वन और वनवासी जन्तुओं सहित उखाड़ लिया। तत्पश्चात देवता लोग उस पर्वत के साथ समुद्रतट पर उपस्थित हुए और समुद्र से बोले--‘हम अमृत के लिये तुम्हारा मन्थन करेंगे।’ यह सुनकर जल के स्वामी समुद्र ने कहा-‘यदि अमृत में मेरा भी हिस्सा रहे तो मैं मन्दराचल को घुमाने में जो भारी पीड़ा होगी, उसे सह लूँगा। तब देवताओं और असुरों ने (समुद्र की बात स्वीकार करके) समुद्रतल में स्थित कच्छपराज से कहा-‘भगवन ! आप इस मन्दराचल के आधार बनिये।' तब कच्छपराज ने ‘तथास्तु’ कहकर मन्दराचल के नीचे अपनी पीठ लगा दी। देवराज इन्द्र ने उस पर्वत को वज्र द्वारा दबाये रखा। ब्रह्मन ! इस प्रकार पूर्वकाल में देवताओं, दैत्यों और दानवों ने मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को डोरी बनाकर अमृत के लिये जल- निधि समुद्र को मथना आरम्भ किया। उन महान असुरों ने नागराज वासुकि के मुखभाग को दृढ़तापूर्वक पकड़ रखा था और जिस ओर उसकी पूँछ थी उधर सम्पूर्ण देवता उसे पकड़कर खड़े थे। भगवान अनन्त देव उधर ही खड़े थे, जिधर भगवान नारायण थे। वे वासुकि नाग के सिर को बार-बार ऊपर उठाकर झटकते थे। तब देवताओं द्वारा बार-बार खींचे जाते हुए वासुकि नाग के मुख से निरन्तर धूँए तथा आग की लपटों के साथ गर्म-गर्म साँसे निकलने लगी। वे धूम-समुदाय बिजलियों सहित मेघों की घटा बनकर परिश्रम एवं संताप से कष्ट पाने वाले देवताओं पर जल की धारा बरसाते रहते थे। उस पर्वत शिखर के अग्रभाग से सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों पर सब ओर से फूलों की वर्षा होने लगी। देवताओं और असुरों द्वारा मन्दराचल को समुद्र का मन्थन होते समय वहाँ महान मेघों की गम्भीर गर्जना के समान जोर-जोर से शब्द होने लगा। उस समय उस महान पर्वत के द्वारा सैकड़ों जलचर जन्तु पिस गये और खारे पानी के उस महासागर में विलीन हो गये। मन्दराचल ने वरूणालय (समुद्र) तथा पातालतल में निवास करने वाले नाना प्रकार के प्राणियों संहार कर डाला। जब वह पर्वत घुमाया जाने लगा, उस समय उसके शिखर से बड़े-बड़े वृक्ष आपस में टकराकर उन पर निवास करने वाले पक्षियों सहित नीचे गिर पड़े। उनकी आपस की रगड़ से बार-बार आग प्रकट होकर ज्वालाओं के साथ प्रज्वलित हो उठी और जैसे बिजली नीले मेघ को ढक ले, उसी प्रकार उसने मन्दराचल को आच्छादित कर लिया। उस दावानल ने पर्वतीय गजराजों, गुफाओं से निकले हुए सिंहों तथा अन्यान्य सहस्त्रों जन्तुओं को जलाकर भस्म कर दिया। उस पर्वत पर जो नाना प्रकार के जीव रहते थे, वे सब अपने प्राणों से हाथ धो बैठे। तब देवराज इन्द्र ने इधर-उधर सबको जलाती हुई उस आग को मेघों के द्वारा जल बरसाकर सब ओर से बुझा दिया। तदनन्तर समुद्र के जल में बड़े-बड़े वृक्षों से भाँति-भाँति के गोंद तथा ओषधियों के प्रचुर रस चू-चू कर गिरने लगे। वृक्षों और ओषधियों के अमृत तुल्य प्रभावशाली रसों के जल से तथा सुवर्णमय मन्दराचल की अनेक दिव्य प्रभावशाली मणियों से चूने वाले रस से ही देवता लोग अमरत्व को प्राप्त होने लगे। उस उत्तम रसों के सम्मिश्रण से समुद्र का सारा जल दूध बन गया और दूध से घी बनने लगा। तब देवता लोग वहाँ बैठे हुए वरदायक ब्रह्माजी से बोले-‘ब्रह्मन् ! भगवान नारायण के अतिरिक्त हम सभी देवता और दानव बहुत थक गये हैं; किन्तु अभी तक वह अमृत प्रकट नहीं हो रहा है। इधर समुद्र का मन्थन आरम्भ हुए बहुत समय बीत चुका है।'
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