महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 215-236
द्वितीय अध्याय: आदिपर्व (पर्वसंग्रह पर्व)
इसके बाद पाँचवाँ उद्योगपर्व समझना चाहिये। अब तुम उसकी विषय-सूची सुनो। जब पाण्डव उपप्लव्य नगर में रहने लगे, तब दुर्योधन और अर्जुन विजय की आकांक्षा से भगवान श्रीकृष्ण के पास उपस्थित हुए। दोनों ने ही भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की, कि ‘आप इस युद्ध में हमारी सहायता कीजिये।’ इस पर महामना श्रीकृष्ण ने कहा। ‘दुर्योधन और अर्जुन ! तुम दोनों ही श्रेष्ठ पुरुष हो। मैं स्वयं युद्ध न करके एक का मन्त्री बन जाऊँगा और दूसरे को एक अक्षौहिणी सेना दे दूँगा। अब तुम्हीं दोनों निश्चय करो कि किसे क्या दूँ। अपने स्वार्थ के सम्बन्ध में अनजान एवं खोटी बुद्धि वाले दुर्योधन ने एक अक्षौहिणी सेना माँग ली और अर्जुन ने यह माँग की कि ‘श्रीकृष्ण युद्ध भले ही न करें, परंतु मेरे मन्त्री बन जायें’। भद्रदेश के अधिपति राजा शल्य पाण्डवों की ओर से युद्ध करने आ रहे थे, परन्तु दुर्योधन ने मार्ग में ही उपहारों से धोखे में डालकर उन्हें प्रसन्न कर लिया और उन वरदायक नरेश से यह वर माँगा कि ‘मेरी सहायता कीजिये।’ शल्य ने दुर्योधन से सहायता की प्रतिज्ञा कर ली। इसके बाद वे पाण्डवों के पास गये और बड़ी शान्ति के साथ सब कुछ समझा बुझाकर सब बात कह दी। राजा ने इसी प्रसंग में इन्द्र की विजय की कथा भी सुनायी। पाण्डवों ने अपने पुरोहित को कौरवों के पास भेजा। धृतराष्ट्र पाण्डवों के पुरोहित के इन्द्र विजय विषयक वचन को सादर श्रवण करते हुए उनके आगमन के औचित्य को स्वीकार किया। तत्पश्चात परम प्रतापी महाराज धृतराष्ट्र ने भी शान्ति की इच्छा से दूत के रूप में संजय को पाण्डवों के पास भेजा। जब धृतराष्ट्र ने सुना कि पाण्डवों ने श्रीकृष्ण को अपना नेता चुन लिया है और वे उन्हें आगे करके युद्ध के लिये प्रस्थान कर रहे हैं, तब चिन्ता के कारण उनकी नींद भाग गयी। वे रात भर जागते रह गये। उस समय महात्मा विदुर ने मनीषी राजा धृतराष्ट्र को विविध प्रकार से अत्यन्त आश्चर्य जनक नीति का उपदेश किया है (वही विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध है)। उसी समय महर्षि सनत्सुजात ने खिन्नचित्त एवं शोक विहृल राजा धृतराष्ट्र सर्वोत्तम अध्यात्मशास्त्र का श्रवण कराया। प्रातःकाल राज सभा में संजय ने राजा धृतराष्ट्र से श्रीकृष्ण और अर्जुन के ऐकात्म्य अथवा मित्रता का भलीभाँति वर्णन किया। इसी प्रसंग में यह कथा भी है कि परम दयालु सर्वज्ञ भगवान श्रीकृष्ण दया-भाव से युक्त हो शान्ति-स्थापन के लिये सन्धि कराने के उद्देश्य से स्वयं हस्तिनापुर नामक नगर में पधारे। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण दोनों ही पक्षों का हित चाहते थे और शान्ति के लिये प्रार्थना कर रहे थे, परन्तु राजा दुर्योधन ने उनका विरोध कर दिया। इसी पर्व में दम्भेद्भव की कथा कही गयी है और साथ ही महात्मा मातलि का अपनी कन्या के लिये वर ढूँढ़ने का प्रसंग भी है। इसके बाद महर्षि गालव के चरित्र का वर्णन है। साथ ही विदुला ने अपने पुत्र को जो शिक्षा दी है, वह भी कही गयी है। भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण और दुर्योधन आदि की दूषित मन्त्रणा को जानकर राजाओं की भरी सभा में अपने योगैश्वर्य का प्रदर्शन किया। भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण को अपने रथ पर बैठाकर उसे (पाण्डवों के पक्ष में आने के लिये) अनेक युक्तियों से बहुत समझाया-बुझाया, परन्तु कर्ण ने अहंकारवश उसकी बात अस्वीकार कर दी। शत्रुसूदन श्रीकृष्ण ने हस्तिानापुर से उपप्लव्य नगर आकर जैसा कुछ वहाँ हुआ था, सब पाण्डवों को कह सुनाया। शत्रुघाती पाण्डव उनके वचन सुनकर और क्या करने में हमारा हित है-यह परामर्श करके युद्ध सम्बन्धी सब सामग्री जुटाने में लग गयें। इसके पश्चात हस्तिनापुर नामक नगर में युद्ध के लिये मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियों की चतुरंगिणी सेना ने कूच किया। इसी प्रसंग में सेना की गिनती की गयी। फिर यह कहा गया है कि शाक्शिाली राजा दुर्योधन ने दूसरे दिन प्रातःकाल से होने वाले महायुद्ध के सम्बन्ध में उलूक को दूत बनाकर पाण्डवों के पास भेजा। इसके अनन्तर इस पर्व में रथ, अतिरथी आदि के स्वरूप का वर्णन तथा अम्बा का उपाख्यान आता है। इस प्रकार माहभारत में उद्योग पर्व पाँचवा पर्व है और इसमें बहुत से सुन्दर-सुन्दर वृत्तान्त हैं। इस उद्योग पर्व में श्रीकृष्ण के द्वारा सन्धि संदेश और उलूक के विग्रह संदेश का महत्वपूर्ण वर्णन हुआ है। तपोधन महर्षियों ! विशाल बुद्धि महर्षि व्यास ने इस पर्व में एक सौ छियासी अध्याय रखे हैं और श्लोकों की संख्या छः हजार छःसौ अट्ठानवे (6698) बतायी है। के नाम से प्रसिद्ध है)। इसी पर्व में यह कथा भी है कि युधिष्ठिर के हित मे संलग्न रहने वाले निर्भय, उदार बुद्धि, अधोक्षज, भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की शिथिलता देख शीघ्र ही हाथ में चाबुक लेकर भीष्म को मारने के लिये स्वयं रथ से कूद पड़े और बड़े वेग से दौड़े।
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