महाभारत आदि पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-16
त्रिंशो अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकादि महर्षियों ! महाबली गरूड़ के पैरों का स्पर्श होते ही उस वृक्ष की वह महाशाखा टूट गयी; किन्तु उस टूटी हुई शाखा को उन्होंने फिर पकड़ लिया। उस महाशाखा को तोड़कर गरूड़ मुस्कुराते हुए उनकी ओर देखने लगे। इतने में ही उनकी दृष्टि वालखिल्य नाम वाले महर्षियों पर पड़ी, जो नीचे मुँह किये उसी शाखा में लटक रहे थे। तपस्या में तत्पर हुए उन ब्रह्मर्षियों को वट की शाखा में लटकते देख गरूड़ ने सोचा ‘इसमें ऋषि लटक रहे हैं। मेरे द्वारा इनका वध न हो जाये। यह गिरती हुई शाखा इन ऋषियों का अवश्य वध कर डालेगी।' यह विचार कर वीरवर पक्षिराज गरूड़ ने हाथी और कछुए को तो अपने पंजों से दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और उन महर्षियों के विनाश के भय से झपटकर वह शाखा अपनी चोंच में ले ली। उन मुनियों की रक्षा के लिये ही गरूड़ ने ऐसा अदभुत पराक्रम किया था। जिसे देवता भी नहीं कर सकते थे, गरूड़ का ऐसा अलौकिक कर्म देखकर वे महर्षि आश्चर्य से चकित हो उठे। उनके हृदय में कम्प छा गया और उन्होंने उस महान पक्षी का नाम इस प्रकार रखा (उन्होंने गरूड़ नाम की व्युत्पत्ति इस प्रकार की)—ये आकाश में विचरने वाले सर्पभोजी पक्षिराज भारी भार लेकर उड़े हैं; इसलिये (गुरूम् आदाय उड्डी इति ‘गरूड़ः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार) ये गरूड़ कहलायेंगे। तदनन्तर गरूड़ अपने पंखों की हवा से बड़े-बड़े पर्वतों को कम्पित करते हुए धीरे-धीरे उड़ने लगे। इस प्रकार वे हाथी और कछुए को साथ लिये हुए ही अनेक देशों में उड़ते फिरे। वालख्ल्यि ऋषियों के ऊपर दयाभाव होने के कारण ही वे कहीं बैठ न सके और उड़ते-उड़ते अनायास ही पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादन पर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने तपस्या में लगे हुए अपने पिता कश्यपजी को देखा। पिता ने भी अपने पुत्र को देखा। पक्षिराज का स्वरूप दिव्य था। वे तेज, पराक्रम और बल से सम्पन्न तथा मन और वायु के समान वेगशाली थे। उन्हें देखकर पर्वत के शिखर का मान होता था। वे उठे हुए ब्रह्मदण्ड के समान जान पड़ते थे। उनका स्वरूप ऐसा था, जो चिन्तन और ध्यान में नहीं आ सकता था। वे समस्त प्राणियों के लिये भय उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अपने भीतर महान पराक्रम धारण कर रखा था। वे बहुत भयंकर प्रतीत होते थे। जान पड़ता था, उनके रूप में स्वयं अग्निदेव प्रकट हो गये हैं। देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी न तो उन्हें दबा सकता था और न जीत ही सकता था। वे पर्वत-शिखरों को विदीर्ण करने और समुद्र के जल को सोख लेने की शक्ति रखते थे। वे समस्त संसार को भय से कम्पित किये देते थे। उनकी मूर्ति बड़ी भयंकर थी। वे साक्षात यमराज के समान दिखायी देते थे। उन्हें आया देख उस समय भगवान कश्यप ने उनका संकल्प जानकर इस प्रकार कहा। कश्यपजी बोले—बेटा ! कहीं दुःसाहस का काम न कर बैठना, नहीं तो तत्काल भारी दुःख में पड़ जाओगे। सूर्य की किरणों का पान करने वाले वालखिल्य महर्षि कुपित होकर तुम्हें भस्म न कर डालें। उग्रश्रवाजी कहते हैं—तदनन्तर पुत्र के लिये महर्षि कश्यप ने तपस्या से निष्पाप हुए महाभाग, वालखिल्य मुनियों को इस प्रकार प्रसन्न किया। कश्यपजी बोले—तपोधनो ! गरूड़ का यह उद्योग प्रजा के हित के लिये हो रहा है। ये महान पराक्रम करना चाहते हैं। आप लोग इन्हें आज्ञा दें। उग्रश्रवाजी कहते हैं—भगवान कश्यप के इस प्रकार अनुरोध करने पर वे वालशिल्पमुनि उस शाखा को छोड़कर तपस्या करने के लिये परम पुण्यमय हिमालय पर चले गये। उनके चले जाने पर विनता नन्दन गरूड़ ने, जो मुँह में शाखा लिये रहने के कारण कठिनाई से बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजी से पूछा—‘भगवन ! इस वृक्ष की शाखा को मैं कहाँ छोड़ दूँ? आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूर तक मनुष्य न रहते हों। तब कश्यपजी ने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। जिसकी कन्दराएँ बर्फ से ढँकी हुई थी और जहाँ दूसरा कोई मन से भी नहीं पहुँच सकता था। उस बडे़ पेट वाले पर्वत का पता पाकर महान पक्षी गरूड़ उसको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुए सहित बड़े वेग से उड़े। गरूड़ वटवृक्ष की जिस विशा शाखाओं को चोंच में लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओं के चमड़ों से बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी। पक्षिराज गरूड़ उसे लेकर थोड़ी ही देर में वहाँ से एक लाख योजन दूर चले आये। पिता के आदेश से क्षण भर में उस पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी। गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ। वह पर्वतराज उनके पंखों की वायु से आहत होकर काँप उठा। उस पर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलों की वर्षा- सी करने लगा। उस पर्वत के मणिकाञचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान शैल की शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओर से चूर-चूर होकर गिर पड़े। उस विशाल शाखा से टकराकर बहुत से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलों के कारण बिजली सहित मेघों की भाँति शोभा पाते थे।
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