महाभारत आदि पर्व अध्याय 30 श्लोक 17-37

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:५२, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्रिंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: त्रिंशो अध्‍याय: श्लोक 29- 52 का हिन्दी अनुवाद

सुवर्णमय पुष्प वाले वे वृक्ष धरती पर गिरकर पर्वत के गेरू आदि धातुओं से संयुक्त हो सूर्य की किरणों द्वारा रँगे हुए से सुशोभित होते थे। तदनन्तर पक्षिराज गरूड़ ने उसी पर्वत की एक चोटी पर बैठकर उन दोनों-हाथी और कछुए को खाया। इस प्रकार कछुए और हाथी दोनों को खाकर महान वेगशाली गरूड़ पर्वत की उस चोटी से ही ऊपर की ओर उड़े। उस समय देवताओं के यहाँ बहुत से भयसूचक उत्पात होने लगे। देवराज इन्द्र का प्रिय आयुध वज्र भय से जल उठा। आकाश से दिन में ही धुएँ और लपटों के साथ उल्का गिरने लगी। वसु, यद्र, आदित्य, साध्य, मरूद्रण तथा और जो-जो देवता हैं, उन सबके आयुध परस्पर इस प्रकार उपद्रव करने लगे, जैसा पहले कभी देखने में नहीं आया था। देवासुर संग्राम के समय भी ऐसी अनोहनी बात नहीं हुई थी। उस समय वज्र की गड़गड़ाहट के साथ बड़े जोर की आँधी उठने लगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं। आकाश में बादल नहीं थे तो भी बड़ी भारी आवाज में विकट गर्जना होने लगी। देवताओं के भी देवता पर्जन्य रक्त की वर्षा करने लगे। देवताओं के दिव्य पुष्पहार मुरझा गये, उनके तेज नष्ट होने लगे। उत्पातकालिक बहुत से भयंकर मेघ प्रकट हो अधिक मात्रा में रूधिर की वर्षा करने लगे। बहुत-‘सी धूलें उड़कर देवताओं के मुकुटों को मलिन करने लगी ! ये भयंकर उत्पात देखकर देवताओं सहित इन्द्र भय से व्याकुल हो गये और बृहस्पति जी से इस प्रकार बोले। इन्द्र ने बोला—भगवन ! सहसा ये भयंकर उत्पात क्यों होने लगे हैं? मैं ऐसा कोई शत्रु नहीं देखता, जो युद्ध में हम देवताओं का तिरस्कार कर सके। बृहस्पतिजी ने कहा—देवराज इन्द्र ! तुम्हारे ही अपराध और प्रमाद से तथा महात्मा वालखिल्य महर्षियों के तप के प्रभाव से कश्यप मुनि और विनता के पुत्र पक्षिराज गरूड़ अमृत का अपहरण करने के लिये आ रहे हैं। वे बड़े बलवान और इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ हैं। बलवानों में श्रेष्ठ आकाशचारी गरूड़ अमृत हर ले जाने में समर्थ हैं। मैं उनमें सब प्रकार की शक्तियों के होने की सम्भावना करता हूँ। वे असाध्य कार्य भी सिद्ध कर सकते हैं। उग्रश्रवाजी कहते हैं—बृहस्पतिजी की यह बात सुनकर देवराज इन्द्र अमृत की रक्षा करने वाले देवताओं से बोले—‘रक्षकों ! महान पराक्रमी और बलवान पक्षी गरूड़ यहाँ से अमृत हर ले जाने को उद्यत हैं। ‘मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ, जिससे वे बलपूर्वक इस अमृत को न ले जा सकें। बृहस्पतिजी ने कहा है कि उनके बल की कहीं तुलना नहीं है।' इन्द्र की यह बात सुनकर देवता बड़े आश्चर्य में पड़ गये और यत्नपूर्वक अमृत को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। प्रतापी इन्द्र भी हाथ में वज्र लेकर वहाँ डट गये। मनस्वी देवता विचित्र सुवर्णमय तथा बहुमूल्य वैदूर्य मणिमय कवच धारण करने लगे। उन्होंने अपने अंगों में यथास्थान मजबूत और चमकीले चमड़े के बने हुए हाथ के मोजे आदि धारण किये। नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। उन सब आयुधों की धार बहुत तीखी थी। वे देवता सब प्रकार के आयुध युद्ध के लिये उद्यत हो गये। उनके पास ऐसे-ऐसे चक्र थे, जिसमें सब ओर आग की चिंगारियां और धूमसहित लपटें प्रकट होती थीं। उनके सिवा परिव, त्रिशूल, फरसे, भाँति-भाँति की तीखी शक्तियाँ, चमकीले खग और भयंकर दिखायी देने वाली गदाएँ भी थीं। अपने शरीर के अनुरूप इन अस्त्र-शस्त्रों को लेकर देवता डट गये। दिव्य अभिषणों से विभूषित निष्पाप देवगण तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रों के साथ अधिक प्रकाशमान हो रहे थे। उनके बल, पराक्रम और तेज अनुपम थे, जो असुरों के नगरों का विनाश करने में समर्थ एवं अग्नि के समान देदीप्यामान शरीर से प्रकाशित होने वाले थे; उन्होंने अमृत की रक्षा के लिये अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था। इस प्रकार वे तेजस्वी देवता उस श्रेष्ठ समर के लिये तैयार खड़े थे। वह रणांगण लाखों परिव आदि आयुधों से व्याप्त होकर सूर्य की किरणों द्वारा प्रकाशित एवं टूटकर गिरे हुए दूसरे आकाश के समान सुशोभित हो रहा था।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।