महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 154-170
तृतीय अध्याय: आदिपर्व (पौष्यपर्व)
यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, ऐसी दो युवतियाँ सदा काले और सफेद तन्तुओं को इधर- उधर चलाती हुई इस वासना जलरूपी वस्त्र को बुन रही हैं तथा वे ही सम्पूर्ण भूतों और समस्त भुवनों का निरन्तर संचालन करती हैं। जो महात्मा वज्र धारण करके तीनों लोकों की रक्षा करते हैं, जिन्होंने वृत्रासुरका वध तथा नमुचि दानव का संहार किया है, जो काले रंग के दो वस्त्र पहनते और लोक में सत्य एवं असत्य का विवेक करते हैं, जल से प्रकट हुए प्राचीन वैश्वानररूप अश्व को वाहन बनाकर उस पर चढ़ते हैं तथा जो तीनों लोकों के शासक हैं, उन जगदीशवर पुरन्दर को मेरा नमस्कार है। तब वह पुरुष उत्तंक से बोला-‘ब्रह्मन ! मैं तुम्हारे इस स्तोत्र से बहुत प्रसन्न हूँ। कहो, तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ?’ यह सुनरकर उत्तंक ने कहा-। ‘सब नाग मेरे अधीन हो जायें। उनके ऐसा कहने पर वह पुरुष पुनः उत्तंक से बोला- ‘इस घोड़े की गुदा में फूँक मारो।' यह सुनकर उत्तंक ने घोड़े की गुदा में फूँक मारी। फूँकने से घोड़े क शरीर के समस्त छिद्रो से धुएँ सहित आग की लपटें निकलने लगी। उस समय सारा नागलोक धुएँ से भर गया। फिर तो तक्षक घबरा गया और आग की ज्वाला के भय से दुखी हो दोनों कुण्डल लिये सहसा घर से निकल आया और उत्तंक से बोला- ‘ब्रह्मन! आप ये दोनों कुण्डल ग्रहण कीजिये।’ उत्तंक ने उन कुण्डलों को लिया। कुण्डल लेकर वे सोचने लगे- ‘अहो! आज ही गुरू पत्नी का वह पुण्यक व्रत है और मैं बहुत दूर चला आया हूँ। ऐसी दशा में किस प्रकार इस कुण्डलों द्वारा उनका सत्कार कर सकूँगा?’ तब इस प्रकार चिन्ता में पड़े हुए उत्तंक से उस पुरुष ने कहा- ‘उत्तंक! इसी घोड़े पर चढ़ जाओ ! यह तुम्हें क्षण भर में उपाध्याय के घर पहुँचा देगा।' ‘बहुत अच्छा’ कहकर उत्तंक उस घोड़े पर चढ़े और तुरन्त उपाध्याय के घर आ पहुँचे। इधर गुरू पत्नी स्नान करके बैठी हुई अपने केश सँवार रही थीं। ‘उत्तंक अब तक नहीं आया’ यह सोचकर उन्होंने शिष्य को शाप देने का विचार कर लिया। इसी बीच में उत्तंक ने उपाध्याय के घर में प्रवेश करके गुरू पत्नी को प्रणाम किया और उन्हें वे दोनों कुण्डल दे दिये । तब गुरू पत्नी ने उत्तंक से कहा-। ‘उत्तंक! तू ठीक समय पर उचित स्थान में आ पहुँचा। वत्स ! तेरा स्वागत है। अच्छा हुआ जो मैंने बिना अपराध के ही तुझे शाप नहीं दिया। तेरा कल्याण उपस्थित है, तुझे सिद्धि प्राप्त हो।' तदनन्तर उत्तंक ने उपाध्याय के चरणों में प्रणाम किया। उपाध्याय ने उससे कहा-‘वत्स उत्तंक! तुम्हारा स्वागत है। लौटने में देर क्यों लगायी?’ तब उत्तंक ने उपाध्याय को उत्तर दिया-‘भगवन। नागराज तक्षक ने इस कार्य में विघ्न डाल दिया था। इसलिये मैं नागलोक में चला गया था। ‘वहीं मैंने दो स्त्रियाँ देखीं, जो करघे पर सूत रखकर कपड़ा बुन रही थीं। उस करघे में काले और सफेद रंग के सूत लगे थे। वह सब क्या था? ‘वहीं, मैंने एक चक्र भी देखा, जिसमें बारह अरे थे। छः कुमार उस चक्र को घुमा रहे थे।' वह भी क्या था? वहाँ एक पुरूष भी मेरे देखने में आया था। वह कौन था? तथा एक बहुत बड़ा अश्व भी दिखायी दिया था। वह कौन था? ‘तब उस पुरूष के कहने से मैंने उस बैल का गोबर खा लिया। अतः वह बैल और पुरूष कौन थे? मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ, वह सब क्या था?’ उत्तंक के इस प्रकार पूछने पर उपाध्याय ने उत्तर दिया- ‘वे जो दोनों स्त्रियाँ थी, वे धाता और विधाता हैं। जो काले और सफेद तन्तु थे, वे रात और दिन हैं। बारह अरों से युक्त चक्र को जो छः कुमार धुमा रहे थे, वे छः ऋतुएँ हैं। बारह महीने ही बारह अरे हैं। संवत्सर हो वह चक्र है। ‘जो पुरूष था, वह पर्जन्य (इन्द्र) हैं। जो अश्व था, वह अग्नि है। इधर से जाते समय मार्ग में तुमने जिस बैल को देखा था, वह नागराज ऐरावत है।
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