महाभारत आदि पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-17

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पंच्‍चत्‍वारिंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व:पंच्‍चत्‍वारिंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 34 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—इन्हीं दिनों की बात है, महातपस्वी जरत्कारू मुनि सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। जहाँ सायंकाल हो जाता, वहीं वे ठहर जाते थे। उन महातेजस्वी महर्षि ने ऐसे कठोर नियमों की दीक्षा ले रखी थी, जिनका पालन करना दूसरे अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये सर्वथा कठिन था। वे पवित्र तीर्थो में स्नान करते हुए विचर रहे थे। वे मुनि वायु पीते और निराहार रहते थे; इसलिये दिन पर दिन सूखते चले जाते थे। एक दिन उन्होंने पितरों को देखा, जो नीचे मुँह किये एक गड्ढे में लटक रहे थे। उन्होंने खश नामक तिनकों के समूह को पकड़ रखा था, जिसकी जड़ में केवल एक तन्तु बच गया था। उस बचे हुए तन्तु को भी वहीं बिल में रहने वाला एक चूहा धीरे-धीरे खा रहा था। वे पितर निराहार, दीन और दुर्बल हो गये थे और चाहते थे कि कोई हमें इस गड्ढे में गिरने से बचा ले। जरत्कारू उनकी दयनीय दशा देखकर दया से द्रवित हो स्वयं भी दीन हो गये और उन दीन-दुखी पितरों के समीप जाकर बोले— ‘आप लोग कौन हैं जो खश के गुच्छे के सहारे लटक रहे हैं? इस खश की जड़ें यहाँ बिल में रहने वाले चूहे ने खा डाली हैं, इसलिये यह बहुत कमजोर हैं। ‘खश के इस गुच्छे में जो मूल का एक तन्तु यहाँ बचा है, उसे भी यह चूहा अपने तीखे दाँतो से धीरे-धीरे कुतर रहा है।' ‘‘उसका स्वल्प भाग शेष है, वह भी बात-की-बात में कट जायेगा। फिर तो आप लोग नीचे मुँह किये निश्चय ही इस गड्ढे़ में गिर जायेंगे। ‘आपको इस प्रकार नीचे मुँह किये लटकते देख मेरे मन में बड़ा दुःख हो रहा हैं। आप लोग बड़ी कठिन विपत्ति में पड़े हैं। मैं आप लोगों का कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? आप लोग मेरी इस तपस्या के चौथे, तीसरे अथवा आधे भाग के द्वारा भी इस विपत्ति से बचाये जा सकें तो शीघ्र बतलावें। ‘अथवा मेरी सारी तपस्या के द्वारा भी यदि आप सभी लोग यहाँ इस संकट से पार हो सकें तो भले ही ऐसा कर लें।' पितरों ने कहा—विप्रवर ! आप बूढ़े ब्रह्मचारी हैं, जो यहाँ हमारी रक्षा करना चाहते हैं; किंतु हमारा संकट तपस्या से नहीं टाला जा सकता। तात ! तपस्या का बल तो हमारे पास भी है। वक्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण ! हम तो वंशपम्परा का विच्छेद होने के कारण अपवित्र नरक में गिर रहे हैं। ब्रह्माजी का वचन है कि संतान ही सबसे उत्कृष्ट धर्म है। तात ! यहाँ लटकते हुए हम लोगों की सुध-बुध प्रायः खो गयी है, हमें कुछ ज्ञात नहीं होता। इसीलिये लोक में विख्यात पौरुष वाले आप जैसे महापुरुष को हम पहचान नहीं पा रहे हैं। आप कोई महान सौभाग्यशाली महापुरुष हैं, जो अत्यन्त दुःख में पडे़ हुए हम जैसे शोचनीय प्राणियों के लिये करूणावश शोक कर रहे हैं। ब्रह्मन ! हम लोग कौन हैं इसका परिचय देते हैं, सुनिये ।हम अत्यन्त कठोर व्रत का पालन करने वाले यायावर नामक महर्षि हैं। मुने ! वंशपरम्परा का क्षय होन के कारण हमें पुण्यलोक से भ्रष्ट होना पड़ा है। हमारी तीव्र तपस्या नष्ट हो गयी; क्योंकि हमारे कुल में अब कोई संतति नहीं रह गयी है। आजकल हमारी परम्परा में एक ही तन्तु या संतति शेष है, किंतु वह भी नहीं के बराबर है। हम अल्पभाग्य हैं, इसी से वह मन्दभाग्य संतति एकमात्र तप में लगी हुई है। उसका नाम है जरत्कारू। वह वेद-वेदागों का पारंगत विद्वान होने के साथ ही मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, महात्मा, उत्तम व्रत का पालन और महान तपस्वी है। उसने तपस्या के लोभ से हमें संकट में डाल दिया है। उसके न पत्नी है, न पुत्र और न कोई भाई-बन्धु ही है। इसी से हम लोग अपनी सुध-बुध खोकर अनाथ की तरह इस गड्ढे में लटक रहे हैं। यदि वह आपके देखने में आवे तो हम अनाथों को सनाथ करने के लिये उससे इस प्रकार कहियेगा। ‘जरत्कारो ! तुम्हारे पितर अत्यन्त दीन हो नीचे मुँह करके गड्ढे में लटक रहे हैं। तुम उत्तम रीति से पत्नी के साथ विवाह कर लो ओर उसके द्वारा संतान उत्पन्न करो।' ‘तपोधन ! तुम्हीं अपने पूर्वजों के कुल में एकमात्र तन्तु बच रहे हो। ब्रह्मन ! आप जो हमें खश के गुच्छे का सहारा लेकर लट्कते देख रहे हैं, यह खश का गुच्छा नहीं है, हमारे कुल का आश्रय है, जो अपने कुल को बढ़ाने वाला है। विप्रवर ! इस खश की जो कटी हुई जड़ें यहाँ आपकी दृष्टि में आ रही हैं, ये ही हमारे वंश के वे तन्तु (संतान) हैं, जिन्हें कालरूपी चूहे ने खा लिया है। ब्राह्मण ! आप जो इस शख की यह अधकटी जड़ देखते हैं, जिसके सहारे हम गड्डे में लटक रहे हैं, यह वही एकमात्र संतान जरत्कारू है, जो तपस्या में लगा है और ब्राह्मण देवता ! जिसे आप चूहे के रूप में देख रहे हैं, यह महाबली काल है। ‘वह उस तपस्वी एवं मूढ़ जरत्कारू को जो तप को ही लाभ मानने वाला, मन्दात्मा (अदूरदर्शी) और अचेत (जड़) हो रहा है, धीरे-धीरे पीड़ा देते हुए दाँतों से काट रहा है। ‘साधुशिरोमणे ! उस जरत्कारू की तपस्या हमें इस संकट से नहीं उबारेगी। देखिये, हमारी जड़ें कट गयी हैं, काल ने हमारी चेतनाशक्ति नष्ट कर दी है और हम अपने स्थान से भ्रष्ट होकर नीचे इस गड्ढे में गिर रहे हैं। जैसे पापियों की दुर्गति होती है, वैसे ही हमारी होती है। हम समस्त बन्धु-बन्धुवों के साथ जब इस गड्ढे में गिर जायेंगे तब जरत्कारू भी काल का ग्रास बनकर अवश्य ही इसी नरक में आ गिरेगा। तात ! तपस्या, यज्ञ अथवा अन्य जो महान एवं पवित्र साधन हैं, वे सब संतान के समान नहीं हैं। तात ! आप तपस्या के धनी जान पड़ते हैं। आपको तपस्वी जरत्कारू मिल जाये तो उससे हमारा संदेश कहियेगा और आपने यहाँ जो कुछ देखा है, वह सब उसे बता दीजियेगा। ब्रह्मन ! हमें सनाथ बनाने की दृष्टि से आप जरत्कारू के साथ इस प्रकार वार्तालाप कीजियेगा, जिससे वह पत्नी संक्रह करे और उसके द्वारा पुत्रों को जन्म दे। तात ! जरत्कारू के बान्धव जो हम लोग हैं, हमारे लिये अपने कुल की भाँति अपने भाई-बन्धु के समान आप सोच कर रहे हैं। अतः साधुशिरोमणे ! बताइयेे, आप कौन हैं? हम सब लोगों में से आप किसके क्या लगते हैं, जो यहाँ खडे़ हुए हैं? हम आपका परिचय सुनना चाहते हैं।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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