महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 26 श्लोक 18-38
षडविंश (26) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)
राजा धृतराष्ट्र इस प्रकार कह ही रहे थे कि मुख में पत्थर का टुकड़ा लिये जटाधारी कृशकाय विदुरजी दूर से आते दिखायी दिये। वे दिगम्बर (वस्त्रहीन) थे । उनके सारे शरीर में मैल जमी हुई थी । वे वन में उड़ती हुई धूलों से नहा गये थे। राजा युधिष्ठिर को उनके आने की सूचना दी गयी। राजन् ! विदुरजी उस आश्रम की ओर देखकर सहसा पीछे की ओर लौट पड़े। यह देख राजा युधिष्ठिर अकेले ही उनके पीछे-पीछे छौड़े। विदुर जी कभी दिखायी देते और कभी अदृश्य हो जाते थे । जब वे एक घोर वन में प्रवेश करने लगे, तब राजा युधिष्ठिर यत्नपूर्वक उनकी ओर दौड़े और इस प्रकार कहने लगे -‘ओ विदुर जी ! मैं आपका परमप्रिय राजा युधिष्ठिर आपके दर्शन के लिये आया हूँ’। तब बुद्धिमानों में श्रेष्ठ विदुरजी वन के भीतर एक परम पवित्र एकान्त प्रदेश में किसी वृक्ष का सहारा लेकर खडे़ हो गये। वे बहुत ही दुर्बल हो गये थे । उनके शरीर का ढाँचामात्र रह गया था, इतने ही से उनके जीवित होने की सूचना मिलती थी । परम बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिर ने उन महाबुद्धिमान् विदुर को पहचान लिया। ‘मैं युधिष्ठिर हूँ’ ऐसा कहकर वे उनके आगे खडे़ हो गये । यह बात उन्होनें उतनी ही दूर से कही थी, जहाँ से विदुरजी सुन सकें; फिर पास जाकर राजा ने उनका बड़ा सत्कार किया। तदनन्तर महात्मा विदुरजी राजा युधिष्ठिर की ओर एकटक देखने लगे। वे अपनी दृष्टि को उनकी दृष्टि से जोड़कर एकाग्र हो गये। बुद्धिमान् विदुर अपने शरीर को युधिष्ठिर के शरीर में, प्राणों में और इन्द्रियों को उनकी इन्द्रियों में स्थापित करके उनके भीतर समा गये। उस समय विदुरजी तेज से प्रज्वलित हो रहे थे । उन्होनें योगबल का आश्रय लेकर धर्मराज युधिष्ठिर के शरीर में प्रवेश किया। राजा ने देखा, विदुरजी का शरीर पूर्ववत् वृक्ष के सहारे खड़ा है। उनकी आँखे अब भी उसी तरह निर्निमेष हैं, किंतु अब उनके शरीर में चेतना नहीं रह गयी हैं। इसके विपरीत उन्होनें अपने में विशेष बल और अधिक गुणों का अनुमान किया । प्रजानाथ ! इसके बाद महातेजस्वी पाण्डुपुत्र विद्यावान् धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने समस्त पुरातन स्वरूप का स्मरण किया। (मैं और विदुरजी एक ही धर्म के अंश से प्रकट हुए थे, इस बात का अनुभव किया)। इतना ही नहीं, उन महातेजस्वी नरेश ने व्यासजी के बताये हुए योगधर्म का भी स्मरण कर लिया। अब विद्वान धर्मराज ने वहीं विदुर के शरीर का दाह संस्कार करने का विचार किया । इतने ही में आकाशवाणी हुई - राजन् ! शत्रुसंतापी भरतनन्दन ! इस विदुर नामक शरीर का यहाँ दाह संस्कार करना उचित नहीं है; क्योंकि वे सन्यास धर्म का पालन करते थे । यहाँ उनका दाह न करना ही तुम्हारे लिये सनातन धर्म है। विदुरजी को सान्तानिक नाम लोकों की प्राप्ति होगी; अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये’। आकाशवाणी द्वारा ऐसी बात कही जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर फिर वहाँ से लौट गये और राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर उन्होंने वे सारी बातें उनसे बतायीं। विदुरजी के देहत्याग का यह अद्भुत समाचार सुनकर तेजस्वी राजा धृतराष्ट्र तथा भीमसेन आदि सब लोगों को बड़ा विस्मय हुआ । इसके बाद राजा ने प्रसन्न होकर धर्मराज युधिष्ठिर से कहा - ‘बेटा ! अब तुम मेरे दिये हुए इस फल-मूल और जल को ग्रहण करो। ‘राजन् ! मनुष्य जिन वस्तुओं का स्वयं उपयोग करता है, उन्हीं वस्तुओं से वह अतिथि का भी सत्कार करे - ऐसी शास्त्र की आज्ञा है।’ उनके ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और उनके दिये हुए फल-मूल का भाइयों सहित भोजन किया। तदनन्तर उन सब लोगों ने फल-मूल और जल का ही आहार करके वृक्षों से नीचे ही रहने का निश्चय कर वहीं वह रात्रि व्यतीत की।
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