महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-17

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सप्तदश (17) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

काश्यप के प्रश्नों के उत्तर में सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- तदनन्तर धर्मात्माताओं में श्रेष्ठ काश्यप ने उन सिद्ध महात्मा के दोनों पैर पकड़कर जिनका उत्तर कठिनाई से दिया जा सके, ऐसे बहुत धर्मयुक्त प्रश्न पूछे। काश्यप ने पूछा-महात्मन्! यह शरीर किस प्रकार गिर जाता है? फिर दूसरा शरीर कैसे प्राप्त होता है? संसारी जीव किस तरह इस दु:खमय संसार से मुक्त होता है? जीवात्मा प्रकृति (मूल विद्या) और उससे उत्पन्न होने वाले शरीर कैसे त्याग करता है? और शरीर से छूटकर दूसरे में वह किय प्रकार प्रवेश करता है? मनुष्य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मो का फल कैसे भोगता है और शरीर न रहने पर उसके कर्म कहाँ रहता है? ब्राह्मण कहते हैं- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! काश्यप के इस प्रकार पूछने पर सिद्ध महात्मा उनके प्रश्नों का क्रमश: उत्तर देना आरम्भ किया। वह मैं बता रहा हूँ, सुनिये। सिद्ध ने कहा- काश्यप! मनुष्य इस लोक में आयु और कीर्ति को बढ़ाने वाले जिन कर्मो का सेवन करता है,वे शरीर-प्राप्ति में कारण होते हैं। शरीर-ग्रहण के अनन्तर जब वे सभी कर्म अपना फल देकर क्षीण हो जाते हे, उस समय जीव की आयु का भी क्षय हो जाता है। उस अवस्था वह विपरीत कर्मो का सेवन करने लगता है और विनाशकाल निकट आने पर उसकी बुद्धि उलटी हो जाती है। वह अपने सत्व (धैर्य), बल और अनुकुल समय को जानकारी भी मनपर अधिकार न होने के कारण असमय में तथा अपनी प्रकृति के विरूद्ध भोजन करता है। अत्यन्त हानि पहुँचाने वाली जितनी वस्तुएँ है, उन सबका वह सेवन करता है। कभी तो बहुत अधिक खा लेता है, कभी बिल्कुल ही भोजन नहीं करता है। कभी दूषित खाद्य अन्न-पान भी ग्रहण लेता है, कभी एक-दूसरे से विरूद्ध गुणवालें पदार्थो को एक साथ खा लेता है। किसी दिन गरिष्ठ अन्न और वह भी बहुत अधिक मात्रा में खा जाता है। कभी-कभी एक बार का खाया हुआ अन्न पचने भी नहीं पाता कि दुबारा भोजन कर लेता है। अधिक मात्र में व्यायाम और स्त्री-सम्भोग करता है। सदा काम करने के लोभ से मल-मूत्र के वेग को रोगे रहता है। रसीला अन्न खाता और दिन में सोता है तथा कभी-कभी खाये हुए अन्न के पचने के पहले असमय में भोजन करके स्वयं ही अपने शरीर में स्थित वात-पित्त आदि दोषों को कुपित कर देता है। उन दोषों के कुपित होने से वह अपने लिये प्राणनाशक रोगों को बुला लेता है। अथवा फाँसी लगाने या जल में डूबने आदि शास्त्र विरूद्ध उपायों का आश्रय लेता है। इन्हीं सब कारणों से जीवन का शरीर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार जो जीव का जीवन बताया जाता है, उसे अच्छी तरह समझ लो। शरीर में तीव्र वायु से प्रेरित हो पित्तका प्रकोप बढ़ जाता है और वह शरीर में फैलकर समस्त प्राणों की गति को रोक देता है। इस शरीर में कुपित होकर अत्यन्त प्रबल हुआ पित्त जीव के मर्मस्थानों को विदीर्ण कर देता है। इस बात को ठीक समझों। जब मर्मस्थान छिन्न-भिन्न होने लगते है, तब वेदना से व्यथित हुआ जीवन तत्काल इस जड शरीर से निकल जाता है। उस शरीर को सदा के लिये त्याग देता हे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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