महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-18

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सप्तत्रिंश (37) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्माजी ने कहा- महाभाग्यशाली श्रेष्ठ महर्षियों! अब मैं तुम लोगों से रजो गुण के स्वरूप और उसके कार्य भूत गुणों का यथार्थ वर्णन करूँगा। ध्यान देकर सुनो संताप, रूप, आयास, सुख दु:ख, सर्दी, गर्मी, ऐश्वर्य, विग्रह, सन्धि, हेतुवाद, मन का प्रसन्न न रहना, सहनशक्ति, बल, शूरता, मद, रोष, व्यायाम, कलह, ईर्ष्या, इच्छा, चुगली खाना, युद्ध करना, ममता, कुटुम्ब का पालन, वध, बन्धन, क्लेश, क्रय-विक्रय, छेदन, भेदन और विदारण का प्रयत्न, दूसरों के मर्म को विदीर्ण कर डालने की चेष्टा, उग्रता, निष्ठुरता, चिल्लाना, दूसरों के छिद्र बताना, लौकिक बातों की चिन्ता करना, पश्चात्ताप, मत्सरता, नाना प्रकार के सांसारिक भावों से भावित होना, असत्य भाषण, मिथ्या दान, संशयपूर्ण विचार, तिरस्कार पूर्वक बोलना, निन्दा, स्तुति, प्रशंसा, प्रताप, बलात्कार, स्वार्थ बुद्धि से रोगी की परिचर्या और बड़ों की शुश्रूषा एवं सेवावृत्ति, तृष्णा, दूसरों के आश्रित रहना, व्यवहार कुशलता, नीति, प्रमाद (अपव्यय), परिवाद और परिग्रह ये सभी रजोगुण के कार्य हैं। संसार में जो स्त्री, पुरुष, भूत, द्रव्य और गृह आदि में पृथक-पृथक संस्कार होते हैं, वे भी रजोगुण की ही प्रेरणा के फल हैं। संताप, अविश्वास, सकाम भाव से व्रत नियमों का पालन, काम्य कर्म, नाना प्रकार के पूर्त (वापी, कूप तडाग आदि पुण्य) कर्म, स्वाहाकार, नमस्कार, स्वधाकार, वषट्कार, याजन, अध्यापन, यजन, अध्ययन, दान, प्रतिग्रह, प्रायश्चित और मंगलजनक कर्म भी राजस माने गये हैं। ‘मुझे यह वस्तु मिल जाय, वह मिल जाय’ इस प्रकार जो विषयों को पाने के लिये आसक्ति मूलक उत्कण्डा होती है, उसका कारण रजोगुण ही है। विप्रगण! द्रोह, माया, शठता, मान, चोरी, हिंसा, घृणा, परिताप, जागरण, दम्भ, दर्प, राग, सकाम भक्ति, विषय प्रेम, प्रमोद, द्यूतक्रीड़ा, लोगों के साथ विवाद करना, स्त्रियों के लिये सम्बन्ध बढ़ाना, नाच बाजे और गान में आसक्त होना- ये सब राजस गुण कहे गये हैं। जो इस पृथ्वी पर भूत, वर्तमान और भविष्य पदार्थों की चिन्ता करते हैं, धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग के सेवन में लगे रहते हैं, मनमाना बर्ताव करते हैं और सब प्रकार के भोगों की समृद्धि से आनन्द मानते हैं, वे मनुष्य राजो गुण से आवृत हैं, उन्हें अर्वाक्स्त्रोत कहते हैं। ऐसे लोग इस लोक में बार-बार जन्म लेकर विषयजन्ति आनन्द में मग्न रहते हैं और इहलोक तथा परलोक में सुख पाने का प्रयत्न किया करते हैं। अत: वे सकाम भाव से दान देते हैं, प्रतिग्रह लेते हैं तथा दर्पण और यज्ञ करते हैं। मुनिवरों! इस प्रकार मैंने तुम लोगों से नाना प्रकार के राजस गुणों और तदनुकूल बर्तावों का यथावत् वर्णन किया। जो मनुष्य इन गुणों को जानता है, वह सदा इन समस्त राजस गुणों के बन्धनों से दूर रहता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में गुरु-शिष्य संवाद व्शियक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।






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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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