महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-19

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द्विचत्वारिंश (42) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


अहंकार से पंच महाभूतों और इन्द्रियों की सृष्टि, अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत का वर्णन तथा निवृत्ति मार्ग का उपदेश

ब्रह्माजी ने कहा- महर्षिगण! अहंकार से पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और पाँचवाँ तेज- ये पंच महाभूत उत्पन्न हुए हैं। इन्हीं पंच महाभतों में अर्थात इनके शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध नामक विषयों में समस्त प्राणी मोहित रहते हैं। धैर्यशाली महर्षियों! महाभूतों का नाश होते समय जब प्रलय का अवसर आता है, उस समय समस्त प्राणियों को महान भय प्राप्त होता है। जो भत जिससे उत्पन्न होता है, उसका उसी में लय हो जाता है। ये भूत अनुलोमक्रम से एक के बाद एक प्रकट होते हैं और विलोम क्रम से इनका अपने-अपने कारण में लय होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण चराचर भूतों का लय हो जाने पर भी स्मरणशक्ति से सम्पन्न धीर-ह्रदय योगी पुरुश कभी नहीं लीन होते। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पाँचवाँ गन्ध तथा इनको ग्रहण करने की क्रियाएँ- ये कारण रूप से (अर्थात सूक्ष्म मन: स्वरूप होने के कारण) नित्य हैं, अत: इनका भी प्रलयकाल में लय नहीं होता। जो (स्थूल पदार्थ) अनित्य हैं उनको मोह के नाम से पुकारा जाता है। लोभ, लोभपूर्वक किये जाने वाले कर्म और उन कर्मों से उत्पन्न समस्त फल समान भाव से वास्तव में कुछ भी नहीं है। शरीर के बाह्य अंग रक्त मांस के संघात आदि एक दूसरे के सहारे रखने वाले हैं। इसीलिये ये दीन और कृपण माने गये हैं। प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान- ये पाँच वायु नियत रूप से शरीर के भीतर निवास करते हैं, अत: ये सूक्ष्म हैं। मान, वाणी और बुद्धि के साथ गिनने से इनकी संख्या आठ होती है। ये आठ इस जगत के उपादान कारण हैं। जिसकी त्वचा, नासिका, कान, आँख, रसना ओर वाक्- ये इन्द्रियाँ वश में हों, मन शुद्ध हो और बुद्धि एक निश्चय पर स्थिर रहने वाली हो तथा जिसके मन को उपर्युक्त इन्द्रियादि रूप आठ अग्नियाँ संतप्त न करती हों, वह पुरुष उस कल्याणमय ब्रह्म को प्राप्त होता है, जिससे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। द्विजवरो! अहंकार से उत्पन्न हुई जो मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँ बतलायी जाती हैं, उनका अब विशेष रूप से वर्णन करूँगा, सुनो। कान, त्वचा, आँख, रसना, पाँचवीं नासिका तथा हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ और वाक्- यह दस इन्द्रियों का समूह है। मन ग्यारहवाँ है। मनुष्य को पहले इस समुदाय पर विजय प्राप्त करना चाहिये। तत्पश्चात् उसे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। इन इन्द्रियों में पाँच ज्ञानेन्द्रिय हैं और पाँच कर्मेन्द्रिय वस्तुत: कान आदि पां इन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं और उनसे भिन्न शेष जो पांच इन्द्रियाँ हैं, वे कर्मेन्द्रिय कहलाती है। मन का सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों से है और बुद्धि बारहवीं हैं। इस प्रकार क्रमश: ग्यारह इन्द्रियों का वर्णन किया गया। इनके तत्त्व को अच्छी तरह जानने वाले विद्वान् अपने को कृतार्थ मानते हैं। अब समस्त ज्ञानेप्द्रियों के भूत, अधिभूत आदि विविध विषयायें का वर्णन किया जाता है। आकाश पहला भूत है। कान उसका अध्यात्म (इन्द्रिय), शब्द उसका अधिभूत (विषय) और दिशाएँ उसकी अधिदैवत (अधिष्ठातृ देवता) हैं। वायु दूसरा भूत है। तवाचा उसका अध्यात्म तथा स्पर्श उसका अधिभूत सुना गया है और विद्युत् उसका अधिदैवत है।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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