महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 65 श्लोक 1-23

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पञ्चषष्टितम (65) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: पञ्चषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मणों की आज्ञा से भगवान् शिव और उनके पार्षद आदि की पूजा करके युधिष्ठर का उस धनराशि को खुदवाकर अपने साथ ले जाना

ब्राह्मण बोले- नरेश्वर! अब आप परमात्मा भगवान् शंकर को पूजा चढ़ाइये। पूजा चढ़ाने के बाद हमें अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये प्रयत्न करना चाहिये। उन ब्राह्मणों की बात सुनकर राजा युधिष्ठर ने भगवान् शंकर को विधिपूर्वक नैवेद्य अर्पण किया। तत्पश्चात् उनके पुरोहित ने विधिपूर्वक संस्कार किए हुए घृत के अग्निदेव को तृप्त किया और भेंट अर्पित करके मन्त्रसिद्ध चरु तैयार किया और भेंट अर्पित करने के लिये वे देवता के समीप गये। जनेश्वर! उन्होंने मन्त्रपूत पुष्प लेकर मिठाई, खीर, फलके गूदे, विचित्र पुष्प, लावा (खील) तथा अन्य नाना प्रकार की वस्तुओं द्वारा उपहार समर्पित किया। वेदों के पारंगत विद्वान पुरोहितों ने विधिपूर्वक देवता को अत्यन्त प्रिय लगने वाले समस्त कर्म करके फिर भगवान् शिव के पार्षदों को उत्तम बलि (भेंट-पूजा) चढ़ायी। इसके बाद यक्षराज कुबेर को, मणिभद्र को, अन्यान्य यक्षों को और भूतों के अधिपतियों को खिचड़ी, फल के गूदे तथा तिलमिश्रित जल की अंजलियाँ निवेदन करके उनकी पूजा सम्पन्न की। तदन्तर पुरोहित ने घड़ों में भात भरकर बलि अर्पित की। इसके बाद भूपालने ब्राह्मणों को सहस्त्रों गौएँ देकर निशाचरी भूतों को भी बलि भेंट की। पृथ्वीनाथ! देवाधिदेव महादेवजी का वह स्थान धूपों की सुगन्ध से व्याप्त और फूलों से अलंकृत होने क कारण बड़ी शोभा पा रहा था। भगवान् शिव और उनके पार्षदों की सब प्रकार से पूजा करके महर्षि व्यास को आगे किये राजा युधिष्ठर उस स्थान को गये, वहाँ वह रत्न एवं सुवर्ण की राशि संचित थी। वहाँ उन्होंने नाना प्रकार के विचित्र फूल, मालपुआ तथा खिचड़ी आदि के द्वारा धनपति कुबेर की पूजा करके उन्हें प्रणाम-अभिवादन किया। तत्पश्चात् उन्हीं सामग्रियों से शंख आदि निधियों तथा समस्त निधिपालों का पूजन करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों के पुण्याहघोष से तेजस्वी हुए शक्तिशाली कुरुश्रेष्ठ राजा युधिष्ठर बड़ी प्रसन्नता के साथ उस धन को खुदवाने लगे। कुद ही देर में अनेक प्रकार के विचित्र, मनोरम एवं बहुसंख्यक सहस्त्रों सुवर्णमय पात्र निकल आये। कठौते, सुराही, गडुआ, कड़ाह, कलश तथा कटोरे- सभी तरह के बर्तन उपलब्ध हुए। धर्मराज युधिष्ठर ने उस समय सब बर्तनों को भूमि खोदकर निकलवाया। उन्हें रखने के लिये बड़ी-बड़ी संदूकें लायी गयी थीं। राजन्! एक-एक संदूक में बंद किये हुए बर्तनों का बोझ आधा-आधा भार होता था। प्रजानाथ! उन सबको ढोने के लिये पाण्डुपुत्र युधिष्ठर के वाहन भी वहाँ उपस्थित थे। महाराज! साठ हजार ऊँट, एक करोड़ बीस लाख घोड़, एक लाख हाथी, एक लाख रथ, एक लाख छकड़े और इतनी ही हथनियाँ थीं। गधों और मनुष्यों की तो गिनती ही नहीं थी। युधिष्ठर ने वहाँ जितना धन खुदवाया था, वह सोलह करोड़ आठ लाख और चौबीस हजार भार सुवर्ण था। उन्होंने उपर्युक्त सब वाहनों पर धन लदवाकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठर ने पुन: महादेवजी का पूजन किया और व्यासजी का आज्ञा लेकर पुरोहित धौम्य मुनि को आगे करके हस्तिनापुर को प्रस्थान किया। राजन्! वे वाहनों पर बोझ अधिक होने के कारण दो-दो कोस पर मुकाम देते जाते थे। द्रव्य के भार से कष्ट पाती हुई वह विशाल सेना उन कुरुश्रेष्ठ वीरों का हर्ष बढ़ाती हुई बड़ी कठिनाई से नगर की ओर उस धन को ले जा रही थी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में द्रव्य का आनयनविषयक पैंसठवा अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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