महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 34-43

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तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: श्लोक 36-48 का हिन्दी अनुवाद


तब ब्रह्माजी ने उन देवताओं से कहा - ‘भृगुवंशी दधीचि ऋषि तपस्या करते हैं। उनके पास जाकर ऐसा वर माँगो, जिससे वे अपने शरीर को त्याग दें। फिर उन्हीं की हड्डियों से वज्र नामक अस्त्र का निर्माण करो’।। तब देवता वहाँ गये, जहाँ भगवान् दधीचि ऋषि तपस्या करते थे। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता उनके निकट जाकर इस प्रकार बोले - ‘भगवन् ! आपकी तपस्या सकुशल चल रही है न ? उसमें कोई बाधा तो नहीं आती है ?’ दधीचि ने इन देवतसओं से कहा -‘आप लोगों का स्वागत है। बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आप जो कहेंगे, वही करूँगा’। देवता बोले - ‘भगवन् ! आप लोकहित के लिये अपने शरीर का परिल्याग कर दें’। यह सुनकर दधीचि के मन में पूर्ववत् सोत्साह बना रहा, तनिक भी उदासी नहीं हुई। वे सुख और दुःख में समान भाव रखने वाले महान् योगी थे। उन्होंने आत्मा को परमात्मा में लगाकर अपने शरीर का परित्याग कर दिया। उनके परमात्मा में लीन हो जाने पर उनकी उन अस्थियों का संग्रह करके धाता ने वज्रास्त्र का निर्माण किया। ब्राह्मण की हड्डी से बने हुए उस अभेद्य एवं दुर्जय वज्र से, जिसमें भगवान् विष्णु प्रविष्ट हुए थे, इन्द्र ने विश्वरूप का वध कर डाला और उनके तीनों सिरों को काट दिया। तदनन्तर त्वष्टा प्रजापति ने विश्वरूप के शरीर का मन्थन करके जिसे उत्पन्न किया था, उस अपने वैरी वृत्रासुर का भी इन्द्र ने उसी वज्र से संहार कर डाला। अब इन्द्र के पास ब्रह्महत्या उपस्थित हुई। उसके भय से इन्द्र ने देवराज पर का परित्याग कर दिया और मानसरोवर के जल में उत्पन्न हुई एक शीतल कमलिनी के पास जा पहुँचे। वहाँ अणिमा आदि ऐश्वर्य के योग से इन्द्र अणुमात्र रूप धारण करके कमलनाल की ग्रन्थि में प्रविष्ट हो गये। ब्रह्महत्या के भय से त्रिलोकीनाथ शचीपति इन्द्र के भागकर अदृश्य हो जाने पर इस जगत् का कोई ईश्वर नहीं रहा। देवताओं में रजोगुण और तमोगुण का आवेश हो गया। महर्षियों के मन्त्र अब कुछ काम नहीं दे रहे थे। राक्षस बढ़ गये। वेदों का स्वाध्याय बंद हो गया। तीनों लोग इन्द्र से आरक्षित होने के कारण निर्बल एवं सुगमता से जीत लेने योग्य हो गये। तदनन्तर देवताओं और ऋषियों ने आयु के पुत्र नहुष को देवराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया। नहुष के ललाट में समसत प्राणियों के तेज को हर लेने वाली पाँच सौ प्रज्वलित ज्योतियाँ जगमगाती रहती थीं। उनके द्वारा वे स्वर्ग के राज्य का पालन करने लगे। ऐसा होने पर सभी स्वाभाविक स्थिति में आ गये। सभी स्वस्थ एवं प्रसन्न हो गये। कुछ काल के पश्चात् नहुष ने देवताओं से कहा- ‘इन्द्र के उपभोग में आने वाली अन्य सारी वस्तुएँ तो मेरी सेवा में उपस्थित हैं। केवल शची मुझे नहीं मिली हैं।’ ऐसा कहकर वे शची के पास गये और उनसे बोले - ‘सौभाग्यशालिनि ! मैं देवताओं का राजा इन्द्र हूँ। मेरी सेवा स्वीकार करो।’ शची ने उत्तर कदया- ‘महाराज ! आप स्वभाव से ही धर्मवत्सल और चन्द्रवंश के रत्न हैं। आपको परायी स्त्री पर बलात्कार नहीं करना चाहिये’। तब नहुष ने शची से कहा - ‘देवि ! इस समय मैं इन्द्र पद पर प्रतिष्ठित हूँ। इन्द्र के राज्य और रत्न दोनों का अधिकारी हो गया हूँ; अतः तुम्हारे साथ समागम करने में कोई अधर्म नहीं है; क्योंकि तुम इन्द्र के उपभोग मेें आयी हुई वस्तु हो।’ यह सुनकर शची ने कहा- ‘महाराज ! मैंने एक व्रत ले रखा है। वह अभी समाप्त नहीं हुआ है। उसकी समाप्ति हो जाने पर कुछ ही दिनों में मैं अपकी सेवा में उपस्थित होऊँगी।’ शची के ऐसा कहने पर नहुष चले गये। इसके बाद नहुष के भय से डरी हुई शची दुःख-शोक से आतुर तथा पति के दर्शन के लिये उत्कण्ठित हो बृहस्पतिजी के पास गयीं। उन्हें अत्यन्त उद्विग्न देख बृहस्पतिजी ने ध्यानस्थ होकर यह जान लिया कि यह अपने स्वामी के कार्य साधन में लगी हुई है। तब उन्होंने शची से कहा’ ‘देवि ! इसी व्रत और तपस्या से सम्पन्न हो तुम वरदायिनी देवी उपश्रुति का आव्हान करो, तब वह तुम्हें इन्द्र का दर्शन करायेगी’। गुरु का यह आदेश पाकर महान् नियम में तत्पर हुई शची ने मन्त्रों द्वारा वरदायिनी देवी उपश्रुति का आव्हान किया, तब उपश्रुति देवी शची के समीप आयीं और उनसे इस प्रकार बोलीं - ‘इन्द्राणी ! यह मैं तुम्हारे सामने खड़ी हूँ। तुमने बुलाया कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?’ शची ने देवी के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और कहा - ‘भगवति ! आप मुझे मेरे पति के दर्शन कराने की कृपा करें। आप की ऋत और सत्य हैं।’ उपश्रुति शची को मानसरोवर पर ले गयीं। वहाँ उसने मृणाल की ग्रन्थियों में छिपे हुए इन्द्र का उन्हें दर्शन करा दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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