महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 130 श्लोक 21-35

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त्रिंशदधिकशततम (130) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-35 का हिन्दी अनुवाद

‘जैसे क्रोध में भरा हुआ सिंह हाथियों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार ये भगवान् श्रीकृष्ण यदि चाहे तो क्रुद्ध होने पर समस्त विपक्षी योद्धाओं को यमलोक पहुंचा सकते हैं। ‘परंतु ये पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण किसी प्रकार भी निंदित अथवा पापकर्म नहीं कर सकते और न कभी धर्म से ही पीछे हट सकते हैं। ‘श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार घोड़े, रथ और हाथियों सहित वाराणसी नागरी जला दी और काशीराज को उनके सगे-संबंधियों सहित मार डाला, उसी प्रकार ये शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कालेश्वर होकर हस्तिनापुर को दग्ध करके कौरवों का नाश कर डालेंगे ॥ ‘यदुकुल को सुख पहुंचानेवाले श्रीकृष्ण जब अकेले पारिजात को अपहरण करने लगे, उस समय अत्यंत कोप में भरे हुए इन्द्र ने इनके ऊपर वसुओं के साथ आक्रमण किया । परंतु वे भी इन्हें पराजित न कर सके ॥ ‘निर्मोचन नामक स्थान में मूर दैत्य ने छ: हजार शक्तिशाली पाश लगा रखे थे, जिन्हें इन वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने निकट जाकर काट डाला ॥ ‘इन्हीं श्रीकृष्ण ने सौभ के द्वार पर पहुँचकर अपनी गदा से पर्वत को विदीर्ण करते हुए मंत्रियों सहित ध्युमत्सेन को मार गिराया था ॥ ‘अभी कौरवों की आयु शेष है, इसलिए सदा धर्म पर ही दृष्टि रखनेवाले कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण इन पापाचारियों को दंड देने में समर्थ होकर भी अभी क्षमा करते जा रहे हैं । यदि ये कौरव अपने सहयोगी राजाओं के साथ गोविंद को बंदी बनाना चाहते हैं तो सबके सब आज ही यमराज के अतिथि हो जाएँगे। ‘जैसे तिनकों के अग्रभाग सदा महाबलवान् वायु के वश में होते हैं, उसी प्रकार समस्त कौरव चक्रधारी श्रीकृष्ण के अधीन हो जाएंगे’। विदुर के ऐसा कहने पर भगवान केशव ने समस्त सुहृदों के सुनते हुए राजा धृतराष्ट्र की ओर देखकर कहा– ‘राजन् ! ये दुष्ट कौरव यदि कुपित होकर मुझे बलपूर्वक पकड़ सकते हों तो आप इन्हें आज्ञा दे दीजिये । फिर देखिये, ये मुझे पकड़ पाते हैं या मैं इन्हें बंदी बनाता हूँ।

‘यद्यपि क्रोध में भरे हुए इन समस्त कौरवों को मैं बाँध लेने की शक्ति रखता हूँ, तथापि मैं किसी प्रकार भी कोई निंदित कर्म अथवा पाप नहीं कर सकता। ‘आपके पुत्र पांडवों का धन लेने के लिए लुभाए हुए हैं, परंतु इन्हें अपने धन से भी हाथ धोना पड़ेगा । यदि ये ऐसा ही चाहते हैं, तब तो युधिष्ठिर का काम बन गया। ‘भारत ! मैं आज ही इन कौरवों तथा इनके अनुगामियों को कैद करके यदि कुंतीपुत्रों के हाथ में सौंप दूँ तो क्या बुरा होगा ? ‘परंतु भारत ! महाराज ! आपके समीप मैं क्रोध अथवा पापबुद्धि से होनेवाला यह निंदित कर्म नहीं प्रारम्भ करूंगा। ‘नरेश्वर ! यह दुर्योधन जैसा चाहता है, वैसा ही हो । मैं आपके सभी पुत्रों को इसके लिए आज्ञा देता हूँ’। यह सुनकर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा- ‘तुम उस पापात्मा राज्यलोभी दुर्योधन को उसके मित्रों, मंत्रियों, भाइयों, तथा अनुगामी सेवकों सहित शीघ्र मेरे पास बुला लाओ । यदि पुन: उसे सन्मार्ग पर उतार सकूँ तो अच्छा होगा’। तब विदुरजी राजाओं से घिरे हुए दुर्योधन को उसकी इच्छा न होते हुए भी भाइयों सहित पुन: सभा में ले आए। उस समय कर्ण, दु:शासन तथा अन्य राजाओं से भी घिरे हुए दुर्योधन ने राजा धृतराष्ट्र से कहा -। ‘नृशंस महापापी ! नीच कर्म करनेवाले ही तेरे सहायक हैं । तू उन पापी सहायकों से मिलकर पापकर्म ही करना चाहता है ॥ ‘वह कर्म ऐसा है, जिसकी साधु पुरुषों ने सदा निंदा की है । वह अपयशकारक तो है ही, तू उसे कर भी नहीं सकता; परंतु तेरे जैसा कुलाड्गार और मूर्ख मनुष्य उसे करने की चेष्टा करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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