महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 94 श्लोक 1-14
चतुर्नवतितम (94) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
- दुर्योधन एवं शकुनि के द्वारा बुलाये जाने पर भगवान् श्रीकृष्ण का रथ पर बैठकर प्रस्थान एवं कौरवसभा में प्रवेश और स्वागत के पश्चात आसन ग्रहण
वैशम्पायन जी कहते हैं – जनमजेय ! उस समय बुद्धिमान् श्रीकृष्ण तथा विदुर के इस प्रकार वार्तालाप करते हुए ही वह नक्षत्रों से सुशोभित मंगलमयी रात्रि बहुत-सी व्यतीत हो चुकी थी।महात्मा श्रीकृष्ण धर्म, अर्थ और काम के विषय में अनेक प्रकार की बातें कहते रहे । उनकी वाणी के पद, अर्थ और अक्षर बड़े विचित्र थे; अत: महात्मा विदुर भगवान् की कही हुई उन विविध वार्ताओं को प्रसन्नतापूर्वक सुनते रहे । इस प्रकार अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण और विदुर दोनों ही एक दूसरे की मनोनुकूल कथावार्ता में इतने तन्मय थे कि बिना इच्छा के ही उनकी वह रात्रि बहुत-सी व्यतीत हो गयी थी । तदनंतर मधुर स्वर से युक्त बहुत से सूत और मागध शंख और दुंदुभियों के घोष से भगवान् श्रीकृष्ण को जगाने लगे। तब समस्त यदुवंशियों के शिरोमणि दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण ने शैय्या से उठकर प्रात:काल का समस्त आवश्यक कर्म क्रमश: सम्पन्न किया। संध्या-तर्पण और जप करके अग्निहोत्र करने के पश्चात माधव ने अलंकृत होकर उदयकाल में सूर्य का उपस्थान किया। इसी समय राजा दुर्योधन और सुबलपुत्र शकुनि भी संध्योपासना में लगे हुए अपार्जित वीर दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण के पास आए और उनसे इस प्रकार बोले– 'गोविंद ! महाराज धृतराष्ट्र सभा में आ गए हैं । भीष्म आदि कौरव तथा अन्य समस्त भूपाल भी वहाँ उपस्थित हैं । जैसे स्वर्ग में देवता इंद्र का आवाहन करते हैं, इसी प्रकार भीष्म आदि सब लोग आपसे वहाँ दर्शन देने की प्रार्थना करते हैं ।' यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने परम मधुर सांत्वनापूर्ण वचन द्वारा उन दोनों का अभिनंदन किया । तदनंतर निर्मल सूर्यदेव का उदय होने जाने पर शत्रुओं को संताप देने वाले भगवान जनार्दन ने ब्राह्मणों को सुवर्ण, वस्त्र, गौ तथा घोड़े दान किए । अनेक प्रकार के रत्नों का दान करके खड़े हुए उन अपाराजित दाशार्हवीर के पास जाकर सारथी ने उनके चरणों में मस्तक झुकाया। इसके बाद क्षुद्र घंटिकाओं से विभूषित और उत्तम घोड़ों से जुते हुए चमकीले विशाल रथ के साथ दारुक शीघ्र ही भगवान की सेवा में उपस्थित हुआ।भगवान के लिए जोतकर खड़ा किया हुआ वह विश्वविख्यात श्रेष्ठ रथ बड़ी शोभा पा रहा था । उसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम वाले चार घोड़े जुते हुए थे। उनमें से शैब्य का रंग तोतों की पांख के समान हरा था । सुग्रीव पलास के फूल की भांति लाल था । मेघपुष्प की कान्ति मेघों के ही समान थी और बलाहक सफ़ेद था। शैब्य दाहिने भाग में जुतकर उस रथ का वहन करता था और सुग्रीव बाएँ भाग में । मेघपुष्प और बलाहक क्रमश: इनके पीछे जुते हुए थे। सत्त्वगुण के अधिष्ठानस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के रथ में लगे हुए ध्वजदण्ड की उस पताका में सूर्य का स्पर्श करते हुए-से सर्पशत्रु विनतानन्दन गरुड विराज रहे थे। कीर्तिमान श्रीकृष्ण का वह श्रेष्ठ रथ उस उज्ज्वल एवं प्रकाशमान गरुड़ध्वज के द्वारा बड़ी शोभा पा रहा था। सोने की जालियों, पताकाओं तथा सुवर्णमय ध्वज के द्वारा भगवान का वह उत्तम रथ प्रलयकाल में उदित हुए सूर्य के समान उभ्दासित हो रहा था। उस रथ के गरुड़ध्वज, चंदोवे, स्वर्णजालविभूषित मध्यभाग तथा पृथक-पृथक दण्डमार्गों का विश्वकर्मा ने सुंदर ढंग से निर्माण किया था । प्रवाल (मूंगा), मनी, सुवर्ण, वैदूर्य, मुक्ता आदि विविध आभूषणों, शत-शत क्षुद्र-घंटिकाओं तथा वालमणि की झालरों से उस रथ के अंत:प्रदेश सुसज्जित किए गए थे । सुवर्णमय कमलिनियों, तपाये हुए सुवर्ण के ही वृक्षों तथा व्याघ्र, सिंह, वराह, वृषभ, मृग, पक्षी, तारा, सूर्य और हाथियों की स्वर्णमयी प्रतिमाओं से उस श्रेष्ठ रथ की अत्यंत शोभा हो रही थी । कूबर ( युगंधर ) की गोलाकार संधियों में वज्र, अण्ड्कुश तथा विमान की आकृतियों से उस रथ को विभूषित किया गया था। महान् सजल मेघों की गर्जना के समान गंभीर शब्द करनेवाले तथा सब प्रकार के रत्नों से विभूषित हुए उस दिव्य रथ को उपस्थित जान अग्नि एवं ब्राह्मणों को दाहिने करके, गले में कौस्तुभ मणि डालकर, अपनी उत्कृष्ट शोभा से प्रकाशित हुए, कौरवों से घिरकर एवं वृष्णिवंशी वीरों से सुरक्षित हो समस्त यादवों को आनंद प्रदान करनेवाले महामना शूरनंदन जनार्दन श्रीकृष्ण उस रथ पर आरूढ़ हुए।
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