महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 99 श्लोक 1-20

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एकोनशततम (99) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व:षण्णवतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
नारदजी के द्वारा पाताल लोक का प्रदर्शन

नारदजी बोले– मातले ! यह जो नागलोक के नाभिस्थान ( मध्यभाग ) में स्थित नगर दिखाई देता है, इसे पाताल कहते हैं । इस नगर में दैत्य और दानव निवास करते हैं । यहाँ जो कोई भूतल के जंगम प्राणी जल के साथ बहकर आ जाते हैं, वे इस पाताल में पहुँचने पर भय से पीड़ित हो बड़े ज़ोर से चीत्कार करने लगते हैं। यहाँ जल का ही आहार करनेवाली आसूर अग्नि सदा उद्दीप्त रहती है । उसे यत्नपूर्वक मर्यादा में स्थापित किया गया है । वह अग्नि अपने आपको देवताओं द्वारा नियंत्रित समझती है; इसलिए सब ओर फैल नहीं पाती। देवताओं ने अपने शत्रुओं का संहार करके अमृत पीकर उसका अवशिष्ट भाग यहीं रख दिया था । इसलिए अमृतमय सोम की हानी और वृद्धि देखी जा सकती है। यहाँ अदितिनन्दन हयग्रीव विष्णु सुवर्णमय कान्ति धारण करके प्रत्येक पर्व पर वेदध्वनि के द्वारा जगत्त को परिपूर्ण करते हुए ऊपर को उठते हैं। जलस्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्त रूप से गिरती है, इसलिए ( 'पतंति अलम्' इस व्युत्पति के अनुसार पात् + अलम् – इन दोनों शब्दों के योग से ) यह उत्तम नगर 'पाताल' कहलाता है। जगत् का हित करनेवाला और समुद्र से उत्पन्न होनेवाला वर्षाकालीन वायु यहीं से शीतल जल लेकर मेघों में स्थापित करता है, जिसे देवराज इन्द्र भूतल पर बरसाते हैं। नाना प्रकार की आकृति तथा भांति भांति के रूपवाले जलचारी तिमी (व्हेल) मत्स्य चंद्रमा की किरणों का पान करते हुए यहाँ जल में निवास करते हैं। मातले ! ये पातालनिवासी जीव-जन्तु यहाँ दिन में सूर्य की किरणों से संतृप्त हो मृतप्राय अवस्था में पहुँच जाते हैं; परंतु रात होने पर अमृतमयी चंद्ररश्मियों के संपर्क से पुन: जी उठते हैं। वहाँ प्रतिदिन उदय लेनेवाले चंद्रमा अपनी किरणमयी भुजाओं से अमृत का स्पर्श कराकर उसके द्वारा यहाँ के मरणासन्न जीवों को जीवन प्रदान करते हैं। इन्द्र ने जिनकी संपत्ति हर ली है, वे अधर्मपरायण दैत्य काल से बद्ध एवं पीड़ित होकर इसी स्थान में निवास करते हैं। सर्वभूतमहेश्वर भगवान् भूतनाथ ने सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिए यहाँ उत्तम तपस्या की थी।वेदपाठ से दुर्बल हुए तथा प्राणों की परवा न करके तपस्या द्वारा स्वर्गलोक पर विजय पानेवाले गोव्रतधारी ब्राह्मण महर्षिगण यहाँ निवास करते हैं। जो जहां कहीं भी सो लेता है, जिस किसी फल-मूल आदि से भोजन का कार्य चला लेता है तथा वल्कल आदि जिस किसी वस्तु से शरीर को ढक लेता है, वही यहाँ गोव्रतधारी कहलाता है। यहाँ नागराज एरावत, वामन, कुमुद और अंजन नामक श्रेष्ठ गज सुप्रतिक के वंश में उत्पन्न हुए हैं । मातले ! देखो, यदि यहाँ तुम्हें कोई गुणवान वर पसंद हो तो मैं चलकर यत्नपूर्वक उसका वरण करूंगा। जल के भीतर यह एक अंडा रखा हुआ है, जो यहाँ अपनी प्रभा से उद्भासित-सा हो रहा है । जबसे प्रजाजनों की सृष्टि आरंभ हुई है, तब से लेकर अबतक यह अंडा न तो फूटता है और न अपने स्थान से इधर-उधर जाता ही है। इसकी जाति अथवा स्वभाव के विषय में कभी किसी को कुछ कहते नहीं सुना है । इसके माता और पिता को भी कोई नहीं जानता है। मातले ! कहते हैं, प्रलयकाल में इस अंडे के भीतर से बड़ी भारी आग प्रकट होगी, जो चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी को भस्म कर डालेगी। नारदजी का यह भाषण सुनकर मातली ने कहा – 'यहाँ मुझे कोई भी वर पसंद नहीं आया, अत: शीघ्र ही अन्यत्र कहीं चलिये'।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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