महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 122 श्लोक 1-18

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एक सौ बाईसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ बाईसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 18 का हिन्दी अनुवाद


सत्संग एवं दौहित्रों के पुण्यदान से ययाति का पुन: स्वर्गारोहण

नारदजी कहते हैं – उन सत्पुरुषों के द्वारा पहचाने जाने मात्र से नरश्रेष्ठ राजा ययाति पृथ्वीतल का स्पर्श न करते हुए ऊपर की ओर उठने लगे । उस समय उनकी आकृति दिव्य हो गई थी । वे शोक और चिंता से रहित थे । उन्होनें दिव्य हार और दिव्य वस्त्र धारण कर रखे थे । दिव्य आभूषण उनके अंड्गों की शोभा बड़ा रहे थे तथा वे दिव्य सुगंध से सुवासित हो रहे थे । वे अपने पैरों से पृथ्वी का स्पर्श नहीं कर रहे थे। तदनंतर लोक में, दानपती के नाम से विख्यात राजा वसुमना पहले उच्च स्वर से शब्दों का उच्चारण करते हुए महाराज ययाति से इस प्रकार बोले-। ‘मैंने जगत् में सभी वर्णों की निंदा से दूर रहकर जो पुण्य प्राप्त किया है, वह भी आपको दे रहा हूँ । आप उस पुण्य से संयुक्त हों। ‘दानशील पुरुष को जो पुण्यफल प्राप्त होता है, क्षमाशील मनुष्य को जो फल मिलता है तथा अग्निस्थापन आदि वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान से मुझे जिस फल की प्राप्ति होनेवाली है, उन सभी प्रकार के पुण्यफलों से आप सम्पन्न हों’। तदनंतर क्षत्रियशिरोमणि प्रतर्दनने यह बात कही – ‘मैं जिस प्रकार सदा धर्म में तत्पर रहा हूँ, सर्वदा न्याययुक्त युद्ध में संलग्न होता आया हूँ तथा संसार में मैंने जो क्षत्रियवंश के अनुरूप यश एवं वीर शब्द के योग्य पुण्यफल का अर्जन किया है, उससे आप संयुक्त हों’ तत्पश्चात उशिनरपुत्र बुद्धिमान शिबी ने मधुर वाणी में कहा – ‘मैंने बालकों में, स्त्रियों में, हास-परिहास के योग्य संबंधियों में, युद्ध में, आपतियों में तथा संकटों में भी पहले कभी असत्य भाषण नहीं किया है । उस सत्य के प्रभाव से आप स्वर्गलोक में जाइए । राजन् ! मैं अपने प्राण, राज्य एवं मनोवांछित सुखभोग को भी त्याग सकता हूँ, परंतु सत्य को नहीं छोड़ सकता । उस सत्या के प्रभाव से आप स्वर्गलोक में जाइए । यदि मेरे सत्या से धर्मदेव संतुष्ट हैं, यदि मेरे सत्य से अग्निदेव प्रसन्न हैं तथा यदि मेरे सत्यभाषण से देवराज इंद्रा भी तृप्त हुए हैं तो उस सत्या के प्रभाव से आप स्वर्गलोक में जाइए’। इसके बाद माधवी के छोटे पुत्र कुशिकवंशी धर्मज्ञ राजर्षि अष्टक ने कई सौ यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले नहुष नन्दन ययाति के पास जाकर कहा -। ‘प्रभो ! मैंने सैकड़ों पुण्डरीक, गोसव तथा वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान किया है । आप उन सबका फल प्राप्त करें । मेरे पास कोई भी रत्न, धन अथवा अन्य सामग्री ऐसी नहीं है, जिसका मैंने यज्ञों में उपयोग न किया हो । इस सत्य कर्म के प्रभाव से आप स्वर्गलोक में जाइए’।ययाति के दौहित्र जैसे-जैसे उनके प्रति उपयुर्क्त बातें कहते थे, वैसे-ही-वैसे वे महाराज इस भूताल को छोड़ते हुए स्वर्गलोक की ओर बढ़ते चले गए थे। इस प्रकार अपने सम्पूर्ण सत्कर्मों के द्वारा उन सब राजाओं ने स्वर्ग से गिरे हुए राजा ययाति को अनायास ही तार दिया। अपने वंश की वृद्धि करनेवाले ययाति के वे चारों दौहित्र चार राजवंशों में उत्पन्न हुए थे । उन्होनें अपने यज्ञ-दानादिजनित धर्म से उन महाप्राज्ञ मातामह ययाति को स्वर्गलोक में पहुँचा दिया।

वे राजा बोले – राजन् ! पृथ्वीपते ! हम राजधर्म तथा राजोचित गुणों से युक्त, सम्पूर्ण धर्मों तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न आपके दौहित्र है । आप हमारे पुण्य लेकर स्वर्गलोक पर आरूढ़ होइये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंग में ययाति का स्वर्गारोहण विषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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