महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-16

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एकत्रिंश (31) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

रात्रि में कौरवों की मन्त्रणा,धृतराष्ट्र के द्वारा दैव की प्रबलता का प्रतिपादन,संजय द्वारा धृतराष्ट्र पर दोषारोप तथा कर्ण और दुर्योधन की बीचीत   धृतराष्ट्र ने कहा-संजय ! निश्चय ही अर्जुन ने अपनी इच्छा से हमारे सब सैनिकों का वध किया। समरांगण में यदि वे शस्त्र उठा लें तो यमराज भी उनके हाथ से जीवित नहीं छूट सकता। अर्जुन ने अकेले ही सुभद्रा का अपहरण किया,अकेले ही खाण्डव वन में अग्निदेव को तृपत किया और अकेले ही इस पृथ्वी को जीतके सम्पूर्ण नरेशों को कर देने वाला बना दिया। उन्होंने दिव्य धनुष धारण करके अकेले ही निवातकवचों का संहार कर डाला और किरात रूप धारण करके खड़े हुए महादेव जी के याथ भी अकेले ही युद्ध किया। अर्जुन ने अकेले ही घोष यात्रा के समय दुर्योधन आदि भरतवंशियों की रक्षा की,अकेले ही अपने पराक्रम से महादेव जी को संतुष्ट ककिया और उन उग्र तेजस्वी वीर ने अकेले ही ( विराट नगर में ) कौरव-दल के समसत भूमिपालों को पराजित किया था। इसलिये वे हमारे सैनिक या नरेश निन्दनीय नहीं हैं,प्रशंसा के ही पात्र हैं। उन्होंने जो कुद किया हो,बताओ। सूत ! सेना के शिविर में लौट आने के पश्चात् उस समय दुर्योधन ने क्या किया ?

संजय बोले-राजन् ! कौरव सैनिक बाणों से घायल,छिन्न-भिन्न अवयवों से युक्त और अपने वाहनों से भ्रष्ट हो गये थे उनके कवच,आयुध और वाहन नष्ट हो गये थे। उनके स्वरों में दीनता थी। शत्रुओं से पराजित होने के कारण वे स्वाभिमानी कौरव मन-ही-मन बहुत दःख पा रहे थे। शिविर में आने पर वे कौरव पनः गुप्त मन्त्रणा करने लगे। उस समय उनकी दशा पैर से कुचले गये उन सर्पो के समान हो रही थी,जिनके दाँत तोड़ दिये गये हों। उस समय क्रोध में भरकर फुफकारते हुए सर्प के समान कर्ण ने हाथ-से-हाथ दबाकर आपके पुत्र की ओर देखते हुए उन कौरव वीरों से इस प्रकार कहा-। अर्जुन सावधान,दृढ़,चतुर और धैर्यवान् है। साथ ही उन्हें श्रीकृष्ण भी कर्तव्य का ज्ञान कराते रहते हैं। इसीलिए उन्होंने सहसा अस्त्रों का प्रयोग करके आज हमें ठग लिया है;परंतु भूपाल ! कल मैं उनके सारे मनसूबे को नष्ट कर दूँगा ‘। कर्ण के ऐसा कहने पर दुर्योधन ने ‘तथास्तु ‘कहकर समस्त श्रेष्ठ राजाओं को विश्राम के लिये जाने की आज्ञा दी। आज्ञा पाकर वे सब नरेश अपने-अपने शिविरों में चले गये। वहाँरात भर सुख से रहे। फिर प्रसन्नता पूर्वक युद्ध के लिये निकले। निकलकर उन्होंने देखा कि कुरुवंश के श्रेष्ठ पुरुष धर्मराज युधिष्ठिर ने बृहस्पति ओर शुक्राचाये के मत के अनुसार प्रयत्न पूर्वक अपनी सेना का दुर्जय व्यूह बना रक्खा है।।12½।। तदनन्तर शत्रु वीरों का सेहार करने वाले दुर्योधनने शत्रुओं के विरुद्ध व्यूह-रचना में समर्थ और वृषभ के समान पुष्ठ कंधों वाले प्रमुख वीर कर्ण का स्मरण किया। कर्ण युद्ध में इन्द्र के समान पराक्रमी,मरुद्गणों के समान बलवान् तथा कार्तवीर्य अर्जुन के समान शक्तिशाली था। राजा दुर्योधन का मन उसी ओर गया। जैसे प्राण-संकट काल में लोग अपने बन्धुजनों का स्मरण करते हैं,उसी प्रकार समस्त सेनाओं में से केवल महाधनुर्धर सूतपुत्र कर्ण की ओर ही उसका मन गया।

धृतराष्ट्र ने पूछा-सूत ! तत्पश्चात् दुर्योधन ने क्या किया ! मूर्खों ! तुम लोगों का जो वैकर्तन कर्ण की ओर गया था,उसका क्या कारण है। जैसे शीत से पीडि़त हुए प्राणी सूर्य की ओर देखते हैं,क्या उसी प्रकार तुम लोग भी राधा पुत्र कर्ण की ओर देखते थे ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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