महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-14
द्विचत्वारिंश (41) अध्याय: कर्ण पर्व
कर्ण का श्रीकृष्ण और अर्जुन के प्रभाव को स्वीकार करते हुए अभिमान पूर्वक शल्य को फटकारना और उनसे अपने को परशुरामजी द्वारा और ब्राह्मण द्वारा प्राप्त हुए शापों की कथा सुनाना
संजय कहते हैं-राजन् ! मद्रराज शल्य की ये अपिंय बातें सुनकर महामनस्वी अधिरथ पुत्र कर्ण ने असंतुष्ट होकर उनसे कहा-शल्य ! अर्जुन और श्रीकृष्ण कैसे हैं,यह बात मुझे अच्छी तरह ज्ञात है। महाराज ! अर्जुन का रथ हाँकने वाले श्रीकृश्ण के बल और पाण्डुपुत्र अर्जुन के महान् दिव्यास्त्रों को इस समय मैं भली भाँति जानता हूँ। तुम स्वयं उनसे अपरिचित हो। वे दोनों कृष्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं तो भी मैं उनके साथ निर्भय होकर युद्ध करूँगा। परंतु परशुरामजी से तथा एक ब्राह्मण शिरोमणि से मुझे जो शाप प्राप्त हुआ है,वह आज मुझे अधिक संताप दे रहा है। पूर्व काल की बात है,मैं दिव्य अस्त्रों को प्राप्त करने की इच्छा से ब्राह्मण का वेष बनाकर परशुरामजी के पास रहता था। शल्य वहाँ भी अर्जुन का ही हित चाहने वाले देवराज इन्द्र ने मेरे कार्य में विघ्न उपस्थित कर दिया था। उक दिन गुरुदेव मेरी जाँघ पर अपना मस्तक रखकर सो गये। उस समय इन्द्र ने एक कीड़े के भयंकर शरीर में प्रवेश करके मेरी जँाघ के पास आकर उसे काट लिया,काटकर उसमें भारी घाव कर दिया और इस कार्य के द्वारा इन्होंने मेरे मनोरथों में विघ्न डाल दिया। जाँघ में घाव हो जाने के कारएा मेरे शरीर से रक्त का महान् प्रवाह बह चला। तत्पश्चात् जब गुरुजी जागे,तब उन्होंने यह सब कुछ देखा। शल्य ! उन्होंने मुझे एैसे र्धर्य से युक्त देखकर पूछा-अरे ! तू ब्राह्मण तो है नहीं;फिर कौन है ? सच-सच बता दे।तब मैंने उनसे अपना यथार्थ परिचय देते हुए इस प्रकार कहा-भगवन् ! मैं सूत हूँ। तदनन्तर मेरा वृतानत सुनकर महातपस्वी परशुरामजी के मन में मेरे प्रति अत्यन्त रोष भर गया और उन्होंने मुझे शाप देते हुए कहा-सूत ! तूने छल करके यह ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया है। इसलिये काम पड़ने पर तेरा यह अस्त्र तुझे याद न आयेगा। तेरी मृत्यु के समय को छोड़कर अन्य अवसरों पर ही यह अस्त्र तेरे काम आ सकता है;क्योंकि ब्राह्मणेतर मनुष्य में यह ब्रह्मास्त्र सदा स्थिर नहीं रह सकता।वह अस्त्र आज इस अत्यन्त भयंकद तुमुल संग्राम में पर्याप्त काम दे सकता है। शल्य ! वीरों को आकृष्ट करने वाला,सर्वसंहारक और अत्यन्त भयंकर जो यह संग्राम भरतवंशी क्षत्रियों पर आ पड़ा है,वह क्षत्रिय-जाति के प्रधान-प्रधान वीरों को निश्चय ही संतप्त करेगा,ऐसा मेरा विश्वास है। शल्य ! आज मैं युद्ध में भयंकर धनुष धारण करने वाले सर्वश्रेष्ठ,वेगवान,भयंकर,असह्य पराक्रमी और सत्यप्रतिज्ञ पाण्डुपुत्र अर्जुन को मौत के मुख में भेज दूँगा। उस ब्रह्मास्त्र से भिन्न एक दूसरा अस्त्र भी मुझे प्राप्त है,जिससे आज समरांगण में मैं शत्रु यसमूहों को मार भगाऊँगा तथा उन भयंकर धनुर्धर,अमित तेजस्वी,प्रतापी,बलवान्,अस्त्रवेत्ता,क्रूर,शूर,रौद्ररूपधारी तथा शत्रुओं का वेग सहन करने में समर्थ अर्जुन को भी युद्ध में मार डालूँगा। जल का स्वामी,वेगवान् और अप्रमेय समुद्र बहुत लोगों को निमग्न कर देने के लिये अपना महान् वेग प्रकट करता है;परन्तु तब की भूमि उस अनन्त महासागर को भी रोक लेती है। उसी प्रकार मैं भी मर्मस्थल को विदीर्ण कर देने वाले,सुन्दर पंखों से युक्त, असंख्य, वीरविनाशक बाण समूहों का प्रयोग करने वाले उन कुन्ती कुमार अर्जुन के साथ रण भूमि में युद्ध करूँगा,जो इस जगत् के भीतर प्रत्यंचा खींचने वाले वीरों में सबसे उत्तम हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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