महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 142 श्लोक 19-36
द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )
प्रकार एक दूसरे को मार डालने की इच्छा वाले वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर परस्पर बाणों का प्रहार करते हुए उस युद्धस्थल में अत्यन्त कुपित हो बाणों द्वारा आघात करने लगे। वे दोनों महाधनुर्धर और पराक्रमी वीर उस रणक्षेत्र में एक दूसरे से स्पर्धा रखते हुए हथिनी के लिये अत्यन्त कुपित होकर परस्पर युद्ध करने वाले दो मदोन्मत्त हाथियों की तरह एक दूसरे से भिड़ गये। भूरिश्रवा और सात्यकि दोनों शत्रुदमन वीरों ने मेघों की भांति परस्पर भयंकर बाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी। भरतश्रेष्ठ ! सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा ने शिनिप्रवर सात्यकि को मार डालने की इच्छा से शीघ्रगामी बाणों द्वारा आच्छादित करके तीखे बाणों से घायल कर दिया। शिनिवंश के प्रधान वीर सात्यकि के वध की इच्छा से भूरिश्रवा ने उन्हें दस बाणों से घायल करके उन पर और भी बहुत से पैने बाण छोड़े। प्रजानाथ ! प्रभो ! सात्यकि ने भूरिश्रवा के उन तीखे बाणों को अपने पास आने के पूर्व ही अपने अस्त्र-बल से आकाश में ही नष्ट कर दिये। वे दोनों वीर उत्तम कुल में उत्पन्न हुए थे। एक कुरुकुल की कीर्ति का विस्तार कर रहा था तो दूसरा वृष्णिवंश का यश बढ़ा रहा था। उन दानों ने एक दूसरे पर पृथक-पृथक अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा की। जैसे दो सिंह नखों से और दो बड़े-बड़े गजराज दांतों से परस्पर प्रहार करते हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर रथ-शक्तियों तथा बाणों द्वारा एक दूसरे को क्षत-विक्षत करने लगे। प्राणों की बाजी लगाकर युद्ध का जूआ खेलने वाले वे दोनों वीर एक दूसरे के अंगों को विदीर्ण करते और खून बहाते हुए एक दूसरे को रोकने लगे। कुरुकुल तथा वृष्णिवंश के यश का विस्तार करने वाले उत्तमकर्मा भूरिश्रवा और सात्यकि इस प्रकार दो यूथपति गजराजों के समान परस्पर युद्ध करने लगे। ब्रह्मलोक को सामने रखकर परमपद प्राप्त करने की इच्छा वाले वे दानों वीर कुछ काल तक एक दूसरे की ओर देखकर गर्जन-तर्जन करते रहे। सात्यकि और भूरिश्रवा दोनों परस्पर बाणों की बौछार कर रहे थे और धृतराष्ट्र के सभी पुत्र हर्ष में भर कर उनके युद्ध का दृश्य देख रहे थे। जैसे हथिनी के लिये दो यूथपति गजराज परस्पर घोर युद्ध करते हैं, उसी प्रकार आपस में लड़ने वाले उन योद्धाओं के अधिपतियों को सब लोग दर्शक बनकर देखने लगे। दोनों ने दोनों के घोड़े मारकर धनुष काट दिये तथा उस महासमर में दोनों ही रथहीन होकर खंग-युद्ध के लिये एक दूसरे के सामने आ गये। बैल के चमड़े से बनी हुई दो विचित्र, सुन्दर एवं विशाल ढालें लेकर और तलवारों को म्यान से बाहर निकाल कर वे दानों समरागण में विचरने लगे। क्रोध में भरे हुए वे दोनों शत्रुमर्दन वीर पृथक-पृथक नाना प्रकार के मार्ग और मण्डल (पैंतरे और दांव-पेंच) दिखाते हुए एक दूसरे पर बारंबार चोट करने लगे। उनके हाथों में तलवारें चमक रही थीं। उन दानों के ही कवच विचित्र थे तथा वे निष्क और अगद आदि आभूषणों से विभूषित थे। शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों यशस्वी वीर भ्रान्त, उदान्त, आविद्ध , आप्लुत, विप्लुत, सृत, सम्पात और समुदीर्ण आदि गति और पैंतरे दिखाते हुए परस्पर तलवारों का वार करने लगे।
« पीछे | आगे » |