महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 178 श्लोक 1-21
अष्टसप्तत्यधिकशततम (178) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
दोनों सेनाओं में परस्पर घोर युद्ध और घटोत्कच के द्वारा अलायुध का वध एवं दुर्योधन का पश्चात्ता संजय कहते हैं- राजन्! समरभूमि में राक्षस के चंगुल में फँसे हुए भीमसेन को निकट से देखकर भगवान् श्रीकृष्ण ने घटोत्कच से यह बात कही-। ‘महातेजस्वी महाबाहु वीर! देखो, युद्धस्थल में उस राक्षस ने सम्पूर्ण सेना के और तुम्हारे देखते-देखते भीमसेन को वश में कर लिया है। महाबाहो! अतः तुम कर्ण को छोड़कर पहले राक्षसराज अलायुध को शीघ्रतापूर्वक मार डालो। पीछे कर्ण का वध करना’। भगवान् श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर पराक्रमी वीर घटोत्कच ने कर्ण को छोड़कर वकके भाई राक्षसराज अलायुध के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। भरतनन्दन! उस रात्रि के समय अलायुध और हिडिम्बाकुमार घटोत्कच दोनों राक्षसों में अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युद्ध होने लगा। अलायुध के सैनिक राक्षस देखने में बड़े भयंकर और शूरवीर थे। वे हाथ में धनुष लेकर बडे़ वेग से आक्रमण करते थे। परंतु अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो अत्यन्त क्रोध में भरे हुए महारथी युयुधान, नकुल और सहदेव ने उन सबको अपने पैने बाणों से काट डाला। राजन्! किरीटधारी अर्जुन ने समरागंण में सब ओर बाणों की वर्षा करके कौरवपक्ष के समस्त क्षत्रिय शिरोमणियों को मार भगाया। नरेश्वर! कर्ण ने भी रणभूमि में धृष्टद्युम्न और शिखण्डी आदि पान्चाल महारथी नरेशों को दूर भगा दिया। उन सबको बाणों की मार से पीडि़त होते देख भयंकर पराक्रमी भीमसेन ने युद्धस्थल में अपने बाणों की वर्षा करते हुए वहाँ तुरंत ही कर्ण पर आक्रमण किया। तत्पश्चात् वे नकुल, सहदेव और महारथी सात्यकि भी राक्षसों को मारकर वहीं आ पहुँचे, जहाँ सूतपुत्र कर्ण था। वे तीनों योद्धा कर्ण के साथ युद्ध करने लगे और पान्चालदेशीय वीरों ने द्रोणाचार्य का सामना किया। उधर क्रोध में भरे हुए अलायुध ने एक विशाल परिघ के द्वारा शत्रुदमन घटोत्कच के मस्तक पर आघात किया।। उस प्रहार से भीमसेन पुत्र घटोत्कच को कुछ मूर्छा आ गयी। परंतु उस महाबली और पराक्रमी वीर ने पुनः अपने आपको सँभाल लिया। तदनन्तर घटोतच ने समरांगण में प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्विनी, एक सौ घंटियों से अलंकृत और सुवर्णभूषित अपनी गदा उसके ऊपर चलायी। भयंकर कर्म करने वाले उस राक्षस द्वारा वेगपूर्वक फेंकी गयी उस भारी आवाज करने वाली गदा ने अलायुध के रथ, सारथि और घोड़ों को चूर-चूर कर दिया। जिसे घोड़े, पहिये और धुरे नष्ट हो गये थे, ध्वज और कूबर बिखर गये थे, उस रथ से अलायुध राक्षसी माया का आश्रय लेकर तुरंत ही ऊपर को उड़ गया। उसने माया का आश्रय लेकर बहुत रक्तकी वर्षा की। उस समय आकाश में भयंकर मेघों की घटा घिर आयी थी और बिजली चमक रही थी। तत्पश्चात् उस महासमर में वज्रपात, मेघगर्जना के साथ विद्युत की गड़गड़ाहट तथा महान् चटचट शब्द होने लगे।। राक्षस की उस विशाल माया को देखकर राक्षसजातीय हिडिम्बाकुमार घटोत्कच ने ऊपर उड़कर अपनी माया से उस माया को नष्ट कर दिया। अपनी माया को माया से ही नष्ट हुई देखकर मायावी अलायुध घटोत्कच पर पत्थरों की भयंकर वर्षा करने लगा।। किन्तु पराक्रमी घटोत्कच ने बाणों की वृष्टि करके उस भयंकर प्रस्तर वर्षा का उन-उन दिशाओं में ही विध्वंस कर दिया। वह अद्भुत सा कार्य हुआ।
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