महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 180 श्लोक 20-33

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अशीत्यधिकशततम (180) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: अशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद

जैसे क्रोध में भरे हुए सर्प को मन्त्र के तेज से स्तब्ध कर दिया जाय तथा प्रज्वलित आग की ज्वाला को बुझा दिया जाय, शक्ति से वन्चित हुआ कर्ण भी आज मुझे वैसा ही प्रतीत होता है। महाबाहो! जब से महात्मा इन्द्र ने कर्ण को उसके दिव्य कवच और कुण्डलों के बदले में अपनी शक्ति दी थी, जिसे उसने घटोत्कच पर चला दिया है, उस शक्ति को पाकर धर्मात्मा कर्ण सदा तुम्हें रणभूमि में मारा गया ही मानता था।। पुरूषसिंह! आज ऐसी अवस्था में आकर भी कर्ण तुम्हारे सिवा किसी दूसरे योद्धा से नहीं मारा जा सकता। अनघ! मैं सत्य की शपथ खाकर यह बात कहता हूँ। कर्ण ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी, तपस्वी, नियम और व्रत का पालक तथा शत्रुओं पर भी दया करने वाला है, इसीलिये उसे वृष (धर्मात्मा) कहा गया है। महाबाहु कर्ण युद्ध में कुशल है। उसका धनुष सदा उठा ही रहता है। वन में दहाड़ने वाले सिंह के समान वह सदा गर्जता रहता है। जैसे मतवाला हाथी कितने ही यूथपतियों को मदरहित कर देता है, उसी प्रकार कर्ण युद्ध के मुहाने पर सिंह के समान पराक्रमी महारथियों का भी घमंड चूर कर देता है। पुरूषसिंह! तुम्हारे महामनस्वी श्रेष्ठ योद्धा दोपहर के तपते हुए सूर्य की भाँति कर्ण की ओर देख भी नहीं सकते। जैसे शरद्ऋतु के निर्मल आकाश में सूर्य अपनी सहस्त्रों किरणें बिखेरता है, उसी प्रकार कर्ण युद्ध में अपने बाणों का जाल सा बिछा देता है। जैसे वर्षाकाल में बरसने वाला मेघ पानी की धारा गिराता है, उसी प्रकार दिव्यास्त्ररूपी जल प्रदान करने वाला कर्णरूपी मेघ बारंबार बाणधारा की वर्षा करता रहता है। चारों ओर बाणों की वृष्टि करके शत्रुओं के शरीरों से रक्त और मांस बहाने वाले देवता भी कर्ण को परास्त नहीं कर सकते। पाण्डुनन्दन! कर्ण कवच और कुण्डल से हीन तथा इन्द्र की दी हुई शक्ति से शून्य होकर अब साधारण मनुष्य के समान हो गया है। इतने पर भी इसके वध का एक ही उपाय है। कोई छिद्र प्राप्त होने पर जब वह असावधान हो, तुम्हारे साथ युद्ध होते समय जब कर्ण के रथ का पहिया (शापवश) धरती में धँस जाय और वह संकट में पड़ जाय, उस समय तुम पूर्ण सावधान हो मेरे संकेत पर ध्यान देकर उसे पहले ही मार डालना। अन्यथा जब वह युद्ध के लिये अस्त्र उठा लेगा, उस समय उस अजेय वीर कर्ण को त्रिलोकी के एकमात्र शूरवीर वज्रधारी इन्द्र भी नहीं मार सकेंगे। मगधराज जरासंघ, महामनस्वी चेदिराज शिशुपाल और निषादजातीय महाबाहु एकलव्य- इन सबको मैंने ही तुम्हारे हित के लिये विभिन्न् उपायों द्वारा एक-एक करके मार डाला है। इनके सिवा हिडिम्ब, किर्मीर और बक आदि दूसरे-दूसरे राक्षसराज, शत्रुदल का संहार करने वाला अलायुध और भयंकर कर्म करने वाला वेगशाली घटोत्कच भी तुम्हारे हित के लिये ही मारे और मरवाये गये हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के समय घटोत्‍कच का वध होने पर श्रीकृष्‍ण का हर्षविषयक एक सौ अस्सीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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