महाभारत वन पर्व अध्याय 297 श्लोक 1-17

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सप्तनवत्यधिकद्विशततम (297) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


सावित्री और यम का संवाद, यमराज का संतुष्ट होकर सावित्री को अनेक वरदान देते हुए मरे हुए सत्यवान् को भी जीवित कर देना तथा सत्यवान् और सावित्री का वार्तालाप एवं आश्रम की ओर प्रस्थान

मार्कण्डेयजी कहते हैं- तदनन्तर पत्नी सहित शक्तिशाली सत्यवान् ने फल चुनकर एक काठ की टोकरी भर ली। तत्वश्चात् वे लकड़ी चीरने लगे। लकड़ी चीरते समय परिश्रम के कारण उनके शरीर से पसीना निकल आया और उसी परिश्रम से उनके सिर में दर्द होने लगा। तब वे श्रम से पीडि़त हो अपनी परूारी पत्नी के पास जाकर बोले। सत्यवान् ने कहा- सावित्री ! आज लकड़ी काअने के परिश्रम से मेरे सिर में दर्द होने लगा है, सारे अंगो में पीड़ा हो रही है और हृदय दग्ध सा होता जान पड़ता है। मित-भाषिणी प्रिये ! मैं अपने-आपको अस्वस्थ सा देख रहा हूँ। ऐसा जान पडत्रता है, कोई शूलों से मेरे सिर को छेद रहा है। कल्याणि ! अब मैं सोना चाहता हूँ। मुझमें खडत्रे रहने की शक्ति नहीं रह गयी है। यह सुनकर सावित्री शीघ्र अपने पति के पास आयी और उनका सिर गोदी में लेकर पृथ्वी पर बैइ गयी। फिर वह तपस्विनी राजकन्या नारदजी की बात याद करके उस मुहूर्त, क्षण, समय और दिन का योग मिलाने लगी।। दो ही घड़ी में उसने देखा, एक पुरुष प्रकट हुए हैं, जिनके शरीर पर लाल रंग का वस्त्र शोभा पा रहा है। सिर पर मुकुट बँधा हुआ है। सूर्य के समान तेजस्वी होने के कारण वे मूर्तिमान् सूर्य ही जान पड़ते हैं। उनका शरीर श्याम एवं उज्जवल प्रभा से उद्भासित है, नेत्र लाल हैं। उनके हाथ में पाश है। उनका स्वरूप डरावना है। वे सत्यवान् के पास खड़े हैं और बार-बार उन्हीं की ओर देख रहे हैं। उन्हें देखते ही सावित्री ने धीरे से पति का मस्तक भूमि पर रख दिया और सहसा खड़ी हो हाथ जोडत्रकर काँपते हुए हृदय से वह आर्त वाणी में बोली। सावित्री ने कहा- मैं समझती हूँ, आप कोई देवता हैं; क्योंकि आपका यह शरीर मनुष्यों जैसा नहीं है। देवेश्वर ! यदि आपकी इच्छा हो तो बताइये आप कौन हैं और क्या करना चाहते हैं। यमराज बोले- सावित्री ! तू पतिव्रता और तपस्विनी है, इसलिये मैं तुझसे वार्तालाप कर सकता हूँ। शुभे ! तू मुझे यमराज जान। तेरे पति इस राजकुमार सत्यवान् की आयु समाप्त हो गयी है? अतः मैं इसे बाँधकर ले जाऊँगा। बस, मैं यही जानना चाहता हूँ। सावित्री ने पूछा- भगवन ! मैंने तो सुना है कि मनुष्यों को ले जाने के लिये आपके दूत आया करते हैं। प्रभो ! आप स्वयं यहाँ कैसे चले आये ? मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! सावित्री के इस प्रकार पूछने पर पितृराज भगवान् यम ने उसका प्रिय करने के लिये अपना सारा अभिप्राय यथार्थ रूप से बताना आरम्भ किया।। ‘यह सत्यवान् धर्मात्मा, रूपवान् और गुणों का समुद्र है। मेरे दूतों द्वारा ले जाया जाने योग्य नहीं है। इसीलिये मैं स्वयं आया हूँ’। तदनन्तर यमराज ने सत्यवान् के यारीर से पाश में बँध्े हुए अंगुष्ठामात्र परिमाण वाले विवश हुए जीव को बलपूर्वक खींचकर निकाला।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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