महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-21
एकोनविंशो (19) अध्याय: द्रोणपर्व (संशप्तकवध पर्व )
संशप्तकगणों के साथ अर्जुन का घोर युद्ध
संजय कहते हैं– राजन ! उन संशप्तकगणों को पुन: लौटा हुआ देख अर्जुन ने महात्मा श्रीकृष्ण से कहा-। हृषीकेश ! घोड़ों को इन संशप्तकगणों की ओर ही बढ़ाइये । मुझे ऐसा जान पड़ता है, ये जीते-जी रणभूमि का परित्याग नहीं करेंगे। आज आप मेरे अस्त्र, भुजाओं और धनुष का बल देखिये । क्रोध में भरे हुए रूद्रदेव जैसे पशुओं (जगत के जीवों) का संहार करते हैं, उसी प्रकार मैं भी इन्हें मार गिराऊँगा। तब श्रीकृष्ण ने मुसकराकर अर्जुन की मगलकामना करते हुए उनका अभिनन्दन किया और दुर्धर्ष वीर अर्जुन ने जहां जहां जाने की इच्छा की, वही-वहीं उस रथ को पहुँचाया । रणभूमि में श्वेत घोड़ों द्वारा खींचा जाता हुआ वह रथ उस समय आकाश में उड़ने वाले विमान के समान अत्यन्त शोभा पा रहा था। राजन ! पूर्वकाल मे देवताओं और असुरों के संग्राम में इन्द्र का रथ जिस प्रकार चलता था, उसी प्रकार अर्जुन का रथ भी कभी आगे बढ़कर और कभी पीछे हटकर मण्डलाकार गति से घूमने लगा। तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने बाण समूहों से आच्छादित करते हुए उन्हें चारो ओर से घेर लि। भरतश्रेष्ठ ! उन्होंने दो ही घड़ी में श्रीकृष्ण सहित कुन्तीकुमार अर्जुन को युद्ध में अदृश्य कर दिया। तब अर्जुन ने कुपित होकर युद्धमें अपना दिगुण पराक्रम प्रकट करते हुए गाण्डीव धनुष को सब ओर से पोछकर उसे तुरंत हाथ मे लिया। फिर पाण्डुकुमार ने भौंहें टेढ़ी करके क्रोध को सूचित करने वाले अपने महान शंख देवदत को बजाया। तदनन्तर अर्जुन ने शत्रु समूहों का नाश करने वाले त्वाष्ट्र नामक अस्त्र का प्रयोग किया । फिर तो उस अस्त्र से सहस्त्रों रूप पृथक-पृथक प्रकट होने लगे। अपने ही समान आकृति वाले उन नाना रूपों में मोहित हो वे एक दूसरे को अर्जुन मानकर अपने तथा अपने ही सैनिकों पर प्रहार करने लगे ।।१२।। ये अर्जुन हैं, ये श्रीकृष्ण हैं, ये दोनों अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं – इस प्रकार बोलते हुए वे मोहाच्छन्न हो युद्ध में एक दूसरे पर आघात करने लगे। उस दिव्याशस्त्र से मोहित हो वे परस्पर के आघात से क्षीण होने लगे । उस रणक्षेत्र में समस्त योद्धा फूले हुए पलाश वृक्ष के समान शोभा पा रहे थे। तत्पश्चात् उस दिव्यास्त्र ने संशप्तकों के छोड़े हुए सहस्त्रों बाणों को भस्म करके बहुसंख्यक वीरों को यमलोक पहॅुचा दिया। इसके बाद अर्जुन ने हंसकर ललित्थ, मालव, मावेल्लक, त्रिगर्त तथा यौधेय सैनिकों को बाणों द्वारा गहरी पीड़ा पहॅुचायी। वीर अर्जुन के द्वारा मारे जाते हुए क्षत्रियगण काल से प्रेरित हो अर्जुन के ऊपर नाना प्रकार के बाण समूहों की वर्षा करने लगे। उस भयंकर बाण वर्षा से ढक जाने के कारण वहां न ध्वज दिखायी देता था, न रथ; न अर्जुन दृष्टिगोचर हो रहे थे, न भगवान श्रीकृष्ण। उस समय हमने अपने लक्ष्य को मार लिया ऐसा समझकर वे एक दूसरे की ओर देखते हुए जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन मारे गये– ऐसा सोचकर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने कपड़े हिलाने लगे। आर्य ! वे सहस्त्रों वीर वहां भेरी, मृदंग और शंख बजाने तथा भयानक सिंहनाद करने लगे। उस समय श्रीकृष्ण पसीने-पसीने हो गये और खिन्न होकर अर्जुन से बोले-पार्थ ! कहां हो । मैं तुम्हें देख नही पाता हॅू । शत्रुओं का नाश करने वाले वीर ! क्या तुम जीवित हो ? श्रीकृष्ण का वह वचन सुनकर अर्जुन ने बड़ी उतावली के साथ वायव्यास्त्र का प्रयोग करके शत्रुओं द्वारा की हुई उस बाण वर्षा को नष्ट कर दिया। तदनन्तर भगवान वायुदेव ने घोड़े, रथ और आयुधों सहित संशप्त समूहों को वहां से सूखे पत्तों के ढेर की भॉति उड़ाना आरम्भ किया। माननीय महाराज ! वायु के द्वारा उड़ाये जाते हुए वे सैनिक समय-समय पर वृक्षों से उड़ने वाले पक्षियों के समान शोभा पा रहे थे। उन सबको व्याकुल करके अर्जुन अपने पैने बाणों से शीघ्रतापूर्वक उनके सौ-सौ और हजार-हजार योद्धाओं का एक साथ संहार करने लगे। उन्होंने भल्लों द्वारा उनके सिर उड़ा दिये, आयुधों सहित भुजाऍ काट डालीं और हाथी की सॅूड़ के समान मोटी जॉघों को भी बाणों द्वारा पृथ्वी पर काट गिराया। धनंजय ने शत्रुओं को शरीर के अनेक अंगो से विहीन कर दिया । किन्हीं की पीठ काट ली तो किन्हीं के पैर उड़ा दिये । कितने ही सैनिक बाहु, पसली और नेत्रों से वंचित होकर व्याकुल हो रहे थे। उन्होंने गन्धर्व नगरों के समान प्रतीत होने वाले और विधिवत सजे हुए रथों के अपने बाणों द्वारा टुकड़े-टुकड़े कर दिये और शत्रुओं को हाथी, घोड़े एवं रथों से वंचित कर दिये। वहां कहीं-कहीं रथवर्ती ध्वजों के समूह ऊपर से कट जाने के कारण मुण्डित तालवनों के समान प्रकाशित हो रहे थे। पताका, अंकुश और ध्वजों से विभूषित गजराज वहां इन्द्र के वज्र से मारे हुए वृक्ष युक्त पर्वतों के समान ऊपर चढ़े हुए योद्धाओं सहित धराशायी हो गये। चामर, माला और कवचों से युक्त बहुत-से-घोड़े अर्जुन के बाणों से मारे जाकर सवारों सहित धरती पर पड़े थे । उनकी आंते और ऑखें बाहर निकल आयी थीं। पैदल सैनिकों के खग एवं नखर कटकर गिरे हुए थे । कवच, ऋष्टि और शक्तियों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे । कवच कट जाने से अत्यन्त दीन हो वे मरकर पृथ्वी पर पड़े थे। कितने ही वीर मारे गये थे और कितने ही मारे जा रहे थे । कुछ गिर गये थे और कुछ गिर रहे थे । कितने ही चक्कर काटते और आघात करते थे । इन सबके द्वारा वह युद्धस्थल अत्यन्त क्रूरतापूर्ण जान पड़ता था। रक्त की वर्षा से वहां की उड़ती हुई भारी धूलराशि शान्त हो गयी और सैकड़ों कबन्धों (बिना सिर की लाशों) लाशों से आच्छादित होने के कारण उस भूमि पर चलना कठिन हो गया। रणक्षेत्र में अर्जुन का वह भयंकर एवं बीभत्स रथ प्रलयकाल में पशुओं (जगत के जीवों) का संहार करने वाले रूद्रदेव के क्रीड़ास्थल सा प्रतीत हो रहा था। अर्जुन के द्वारा मारे जाते हुए रथ और हाथी व्याकुल होकर उन्ही की ओर मुँह करके प्राणत्याग करने के कारण इन्द्रलोक के अतिथि हो गये। भरतश्रेष्ठ ! वहां मारे गये महारथियों से आच्छादित हुई वह सारी भूमि सब ओर से प्रेतों द्वारा घिरी हुई सी जान पड़ती थी ।।३७।। जब इधर सव्यसाची अर्जुन उस युद्ध में भली प्रकार लगे हुए थे, उसी समय अपनी सेना का व्यूह बनाकर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। व्यूह-रचनापूर्वक प्रहार करने में कुशल योद्धाओं ने युधिष्ठिर को पकड़ने की इच्छा से तुरंत ही उन पर चढ़ाई कर दी, वह युद्ध बड़ा भयानक हुआ।
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