महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-20
चतुविंशो (24) अध्याय: द्रोणपर्व (संशप्तकवध पर्व )
धृतराष्ट्र का अपना खेद प्रकाशित करते हुए युद्ध के समाचार पूछना
धृतराष्ट्र ने कहा – संजय ! भीमसेन आदि जो-जो नरेश युद्ध में लौटकर आये थे, ये तो देवताओं की सेना को भी पीडित कर सकते हैं। निश्चय ही यह मनुष्य दैव से प्रेरित होता है । सबके पृथक्-पृथक् सम्पूर्ण मनोरथ दैव पर ही अवलम्बित दिखायी देते हैं। जो राजा युधिष्ठिर दीर्धकाल तक जटा और मृगचर्म धारण करके वनमें रहे और कुछ काल तक लोगों से अज्ञात रहकर भी विचरे हैं, वे ही आज रणभूमि में विशाल सेना जुटाकर चढ़ आये हैं इसमें मेरे तथा पुत्रों के दैवयोग के सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है ? निश्चय ही मनुष्य भाग्य से युक्त होकर ही जन्म ग्रहण करता है । भाग्य उसे उस अवस्था मे भी खींच ले जाता है, जिसमे वह स्वयं नहीं जाना चाहता। हमने घूत के संकट में डालकर युधिष्ठिर को भारी क्लेश पहॅुचाया था, परंतु उन्होंने भाग्य से पुन: बहुत सहायकों को प्राप्त कर लिया है। सूत संजय ! आज से बहुत पहले की बात है, मूर्ख दुर्योधन ने मुझसे कहा था कि पिताजी ! इस समय केकय, काशी, कोसल तथा चेदिदेश के लोग मेरी सहायता के लिये आ गये हैं । दूसरे वंगवासियों ने भी मेरा ही आश्रय लिया है । तात ! इस भूमण्डल का बहुत बड़ा भाग मेरे साथ है, अर्जुन के साथ नहीं है। उसी विशाल सेनासमूह के मध्य सुरक्षित हुए द्रोणाचार्य को युद्धस्थल में धृष्टधुम्न ने मार डाला, इसमे भाग्य के सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है ? राजाओ के बीच में सदा युद्ध का अभिनन्दन करनेवाले सम्पूर्ण अस्त्रविद्या के पारंगत विदान् महाबाहु द्रोणाचार्य को कैसे मृत्यु प्राप्त हुई ? मुझ पर महान् संकट आ पहॅुचा है । मेरी बुद्धिपर अत्यन्त मोह छा गया हैं ।मै भीष्म और द्रोणाचार्य को मारा गया सुनकर जीवित नहीं रह सकता। तात ! मुझे अपने पुत्रों के प्रति अत्यन्त आसक्त देखकर विदुर ने मुझसे जो कुछ कहा था, मेरे साथ दुर्योधन को वह सब प्राप्त हो रहा है। यदि मैं दुर्योधन को त्यागकर शेष पुत्रों की रक्षा करना चाहॅू तो यह अत्यन्त निष्ठुरता का कार्य अवश्य होगा, परंतु मेरे सारे पुत्रों की तथा अन्य सब लोगोकी भी मृत्यु नहीं होगी। जो मनुष्य धर्म का परित्याग करके अर्थपरायण हो जाता हैं, वह इस लोक से (लौकिक स्वार्थ से ) भ्रष्ट हो जाता है और नीच गति को प्राप्त होता है। संजय ! आज इस राष्ट्र का उत्साह भंग हो गया । प्रधान के मारे जाने से अब मुझे किसीका जीवन शेष रहता नही दिखायी देता। हमलोग सदा जिन सर्वसमर्थ पुरूषसिंहों का आश्रय लेकर जीवन धारण करते थे, उन धुरंधर वीरों के इस लोक से चले जाने पर अब हमारी सेना का कोई भी सैनिक कैसे जीवित बच सकता है। संजय ! वह युद्ध जिस प्रकार हुआ था, सब साफ-साफ मुझसे बताओ । कौन-कौन वीर युद्ध करते थे, कौन किसको परास्त करते थे और कौन-कौनसे क्षुद्र सैनिक भय के कारण युद्ध के मैदान से भाग गये थे। धनंजय अर्जुन के विषय में भी मुझे बताओ । रथियों में क्षेष्ठ अर्जुन ने क्या–क्या किया था । मुझे उनसे तथा शत्रु स्वरूप भीमसेन से अधिक भय लगता है। संजय ! पाण्डव सैनिकों के पुन: युद्धभूमि में लौट आने पर मेरी शेष सेना के साथ जिस प्रकार उनका अत्यन्त भयंकर संग्राम हुआ था, वह कहो। तात ! पाण्डव सैनिकों के लौटने पर तुम लोगोंके मन की कैसी दशा हुई ? मेरे पुत्रोंकी सेनामें जो शूरवीर थे, उनमें से किन लोगो ने शत्रुपक्ष के किन वीरोको रोका था ?
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