महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 54 श्लोक 86-106

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चतु:पञ्चाशत्तम (54) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: चतु:पञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 86-106 का हिन्दी अनुवाद

परंतप! उस शंखनाद के द्वारा उन्होंने सम्पूर्ण कलिंगा के हृदय में कम्प मचा दिया ओर उन सबपर बडा भारी मोह छा गया राजन् ! उस समरांगण में गजराज के समान अनेक मार्गो-पर विचरते ओर इधर-उधर दौडते हुए भीमसेन के भयसे समस्त सैनिक और वाहन थर-थर कांपने लगे। उनके बार-बार उछलने से सबपर मोह छा गया। जैसे महान् तालाब किसी ग्राहके द्वारा मथित होने पर क्षुब्ध हो उठता है, उसी प्रकार वह सारी सेना भीमसेन के द्वारा बेरोक-टोक मथित होने पर भयसे संत्रस्त हो कांपने लगी। अद्धुतकर्मा भीमसेन के द्वारा भयभीत कर दिये जाने पर कलिंग देश के समस्त योद्धा जब दल बनाकर भागने ओर भाग-भागकर पुनः लौटने लगे, तब पाण्डव-सेनापति द्रुपद-कुमार धृष्टघुम्न ने अपने समस्त सैनिकों से कहा- ‘वीरो ! (उत्साह के साथ) युद्ध करो’। सेनापति की बात सुनकर शिखण्डी आदि महारथी प्रहार कुशल रथियों की सेनाओ के साथ भीमसेन का ही अनुसरण करने लगे। तत्पश्चात पाण्डुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर मेघों की घटा के समान हाथियों की विशाल सेना साथ किये पीछे से आकर उन सबकी सहायता करने लगे। इस प्रकार द्रुपदपुत्र धृष्टघुम्न अपनी सारी सेनाओं को युद्ध के लिये करके श्रेष्ठ पुरूषों के साथ भीमसेन के पृष्ठ भाग की रक्षा का कार्य हाथ में लिया। जगत् में पांचालराज धृष्टघुम्न के लिये भीष्म ओर सात्यकि को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा पुरूष नही था, जो प्राणों से भी बढकर हो। शत्रुवीरो कानाश करनेवाले वैरिविनाशक द्रुपदकुमार धृष्टघुम्न महाबाहु भीष्मसेन को कलिंगो की सेवामें विचरते देखा। राजन् ! उन्हे देखते ही परंतप धृष्टघुम्न के ह्रदय में हर्ष की सीमा न रही। वे बारंबार गर्जना करने लगे। उन्होने समरांगण में शंख बजाया और सिंहनाद किया। कबुतर के समान रंगवाले घोडे़ जिनके रथ में जोते जाते है, उन धृष्टघुम्न के सुवर्णभूषित रथ में कचनार वृक्ष के चिह्र से युक्त ध्वजा फहराती देख भीमसेन को बडा आश्वासन मिला । कलिंगो ने भीमसेन पर धावा किया, यह देखकर अनन्त आत्मबल से सम्पन्न धृष्टघुम्न भीमसेन की रक्षा के लिये युद्ध स्थल में उनके पास आ पहुंचे। उस समरभूमि में मनस्वी वीर धृष्टघुम्न और भीमसेन ने सात्यकि को भी दूरसे आते देखा; अतः वे अधिक उत्साह से सम्पन्न हो कलिंगो से युद्ध करने लगे। विजयी वीरों में श्रेष्ठ पुरूषप्रवर सात्यकि ने बडे़ वेग से वहां पहूंचकर भीमसेन और धृष्टघुम्न के पृष्ठपोषण का कार्य सॅभाला। उन्होंने धनुष हाथ में लेकर भयंकर पराक्रम प्रकट करने के पश्चात् अपने रौद्र रूपका आश्रय ले कलिंगसेना की और दृष्टिपात किया। भीमसेन ने वहां एक भयंकर नदी प्रकट कर दी, जो कलिंग-सेना रूपी उद्रमस्थान से निकली थी। उसमें मांस और शोणित की ही कीच थी। वह नदी रक्त की ही धारा बहा रही थी। कलिंग और पाण्डव-सेना के बीच में बहने वाली उस रक्त की दुस्तर नदी को महाबली भीमसेन अपने पराक्रम से पार कर गये। राजन् ! भीमसेन को उस रूप में देखकर आपके सैनिक पुकार-पुकारकर कहने लगे, यह साक्षात् काल ही भीमसेन के रूप में प्रकट होकर कलिंगों के साथ युद्ध कर रहा है। तदनन्तर शान्तनुनन्दन भीष्म रणभूमि में उस कोलाहल को सुनकर अपनी सेना को सब और से व्युहबद्ध करके तुरन्त ही भीमसेन के पास आये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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