महाभारत वन पर्व अध्याय 297 श्लोक 18-31

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सप्तनवत्यधिकद्विशततम (297) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 18-31 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


फिर तो प्राण निकल जाने से उसकी साँस बंद हो गयी- अंगकांति फीकी पड़ गयी और शरीर निश्चेष्ट होकर अपरूप दिखायी देने लगा।यमराज उस जीव को बाँधकर साथ लिये दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। सावित्री दुःख से आतुर हो यमराज के ही पीछे-पीछे चल पड़ी। वह परम सौभाग्यवती पतिव्रता राजकन्या नियमपूर्वक व्रतों के पालन से पूर्णतः सिद्ध हो चुकी थी। (अतः निर्बाध गति से सर्वत्र आने-जाने में समर्थ थी)।। यमराज बोले- सावित्री ! अब तू लौट जा, सत्यवान् का अन्त्येष्टि-संस्कार कर। अब तू पति के ऋण से उऋण हो गयी। पति के पीछे तुझे जहाँ तक आना चाहिये था, तू वहाँ तक आ चुकी। सावित्री ने कहा- जहाँ मेरे पति ले जाये जाते हैं अथवा ये स्वयं जहाँ जा रहे हैं, वहीं मुझे भी जाना चाहिये; यही सनातन धर्म है। तपस्या, गुरुभक्ति, पतिप्रेम, व्रतपालन तथा आपकी कृपा से मेरी गति कहीं भी रुक नहीं सकती। तत्त्वदर्शी विद्वान ऐसा कहते हैं कि सात पग साथ चलने मात्र से मैंत्री-सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, उसी मित्रता के सामने रखकर मैं आपसे कुछ निवेदनद करूँगी, उसे सुनिये। जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वे वन में रहकर धर्मपालन, गुरुकुलवास तथा कष्टसहनरूप तपस्या नहीं कर सकते हैं। जितेन्द्रिय पुरुष ही यह सब कुछ करने में समर्थ हैं। महात्मा लोग विवेक विचार से ही धर्म प्राप्ति बताते हैं, अतः सभी सत्पुरुष धर्म को ही श्रेष्ठ मानते हैं। अपने एक ही वर्ण के सत्पुरुष-सम्मत धर्म का पालन करने से सभी लोग उस विज्ञान मार्ग पर पहुँच जाते हैं, जो सबका लक्ष्य है। अतः देसरे या तीसरे वर्ण की इच्छा नहीं रखनी चाहिये। इसलिये साधु पुरुष केवल वर्ण-धर्म को ही प्रधानता देते हैं। यमराज बोले- अनिन्दिते ! तू लौट जा। स्वर, अक्षर, व्यंजन एवं युक्तियों से युक्त तेरी इन बातों से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तू यहाँ मुझसे कोई वर माँग ले। सत्यवान् के जीन के सिवा मैं और सब कुछ तुझे दे सकता हूँ। सावित्री बोली- भगवन् ! मेरे श्वसुर अपने राज्य से भ्रष्ट होकर वन में रहते हैं। उनकी आँखें भी नष्ट हो गयी हैं। मैं चाहती हूँ, आपकी कृपा से उन महाराज को उनकी आँखें मिल जायँ और वे बलवान् तथा अग्नि एवं सूर्य के समान तेजस्वी हो जायँ। यमराज बोले- अनिन्दिते ! मैं तुण्े वर देता हूँ। तूने जैसा कहा है, वह वैसा ही होगा। मैं देखता हूँ, तू राह चलने के कारण बहुत थक गयी है। अब लौट जा, जिससे तुझे अधिक परिश्रम न हो। सावित्री बोली- स्वामी के समीप रहते हुए मुझे श्रम हो ही कैसे सकता है। जहाँ मेरे पतिदेव रहेंगे, वहीं मेरी भी गति निश्चित है। आप जहाँ मेरे प्राणनाथ को ले जायँगे, वहीं मेरा जाना भी अवश्यम्भावी है। देवेश्वर ! आप फिर मेरी बात सुनिये। सत्पुरुषों का एक बार का समागम भी अत्यन्त अभीष्ट होता है। उनके साथ मित्रता हो जाना उससे भी बढ़कर बताया गया है। साधु पुरुष का संग कभी निष्फल नहीं होता; अतः सदा सत्पुरुषों के ही समीप रहना चाहिये। यमराज बोले- भामिनी ! तूने जो सबके हित की बात कही है, वह मेरे मन के अनुकूल है तथा विद्वानों की भी बुद्धि को बढ़ानले वाली है; अतः इस सत्यवान् के जीवन को छोड़कर तू दूसरा कोई वर और माँग ले।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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