महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 104 श्लोक 15-29

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १३:५९, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चतुरधिकशततम (104) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद

जो वस्तु पहले बहुत बडे समुदाय के अधीन (गणतन्त्र) रह चुकी है तथा जो एक के बाद दूसरे की होती गयी है, वह सबकी सब तुम्हारी भी नही है; इस बात को भली भाँति समझ लेने पर किसको बारंबार चिन्ता होगी। यह राजलक्ष्मी होकर भी नहीं रहती और जिनके पास नहीं होती, उनके पास आ जाती है; परंतु शोक की सामथ्र्य नहीं है कि वह गयी हुई सम्पत्ति को लौटा लावे; अतः किसी तरह भी शोक नहीं करना चाहिये। राजन्! बताओं तो सही, तुम्हारे पिता आज कहाँ है? तुम्हारे पितामह अब कहाँ चले गये? आज न तो तुम उन्हें देखते हो और न वे तुम्हें देख पाते है। यह शरीर अनित्य है, इस बात को तुम देखते और समझते हो, फिर उन पूर्वजों के लिये क्यों निरन्तर शोक करते हो? जरा बुद्धि लगाकर विचार करो, निश्चय ही एक दिन तुम भी नहीं रहोगे। नरेश्वर! मैं, तुम, तुम्हारे मित्र और शत्रु ये हम सब लोग एक दिन नहीं रहेंगे। यह सब कुछ नष्ट हो जायेगा। इस समय जो बीस या तीस वर्ष की अवस्था वाले मनुष्य है, ये सभी सौ वर्ष के पहले ही मर जायेंगे। ऐसी दशा में यदि मनुष्य बहुत बडी सम्पत्ति से न बिछुड जाय तो भी उसे यह मेरा नहीं है ऐसा समझकर अपना कल्याण अवश्य करना चाहिये। जो वस्तु भविष्य में मिलने वाली है, उसे यही माने कि वह मेरी नहीं है तथा जो मिलकर नष्ट हो चुकी हो, उसके विषय में भी यही भाव रखे कि वह मेरी नही थी। जो ऐसा मानते है कि प्रारब्ध ही सबसे प्रबल है, वे ही विद्वान है और उन्हें सत्पुरूषों का आश्रय कहा गया है। जो धनाढय नहीं है, वे भी जीते है ओर कोई राज्य का शासन भी करते है उनमें से कुछ तुम्हारे समान ही बुद्धि और पौरूष से सम्पन्न है तथा कुछ तुमसे बढकर भी हो सकते है; परंतु वे भी तुम्हारी तरह शोक नहीं करते। अतः तुम भी शोक न करो। क्या तुम बुद्धि और पुरूषार्थ में उन मनुष्यों से श्रेष्ठ या उनके समान नहीं हो? राजा ने कहा- ब्रह्मन! मैं तो यही समझता हूं कि वह सारा राज्य मुझे स्वतः अनायास ही प्राप्त हो गया था और अब महान शक्तिशाली काल ने यह सब कुछ छीन लिया है। तपोधन! जैसे जल का प्रवाह किसी वस्तु को बहा ले जाता है, उसी प्रकार काल के वेग से मेरे राज्य का अपहरण हो गया। उसी के फलस्वरूप् मैं इस शोक का अनुभव करता हूँ, और जैसे तैसे जो कुछ मिल जाता है, उसी से जीवन निर्वाह करता हूँ। मुनि ने कहा- कोसलराजकुमार! यथार्थ तत्व का निश्चय हो जाने पर मनुष्य भविष्य और भूतकाल की किसी भी वस्तु के लिये शोक नहीं करता। इसलिये तुम भी सभी पदार्थों के विषय में उसी तरह शोकरहित हो जाओ। मनुष्य पाने योग्य पदार्थों की ही कामना करता हैं अप्राप्य वस्तुओं की कदापि नहीं। अतः तुम्हें भी जो कुछ प्राप्त है, उसी का उपभोग करते हुए अप्राप्त वस्तु के लिये कभी चिन्तन नहीं करना चाहिये। कोसलनरेश! क्या तुम दैववश जो कुछ मिल जाय, उसी से उतने ही आनन्द के साथ रह सकोंगे, जैसे पहले रहते थे। आज राजलक्ष्मी से वंचित होने पर भी क्या तुम शुद्ध हद्य से शोक को छोड चुके हो?


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।