महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 104 श्लोक 30-42

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चतुरधिकशततम (104) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 30-42 का हिन्दी अनुवाद

जब पहले सम्पत्ति प्राप्त होकर नष्ट हो जाती है, तब उसी के कारण अपने को भाग्यहीन मानने वाला दुबुद्धि मनुष्य सदा विधाता की निन्दा करता है और प्रारब्धवश प्राप्त हुए पदार्थों से उसे संताप नहीं होता है। वह दूसरे धनी मनुष्यों को धन के अयोग्य मानता है। इसी कारण उसका यह ईष्र्याजनक दुख सदा उसके पीछे लगा रहता है। राजन्! अपने को पुरूष मानने वाले बहुत से मनुष्य ईष्र्या और अहंकार से भरे होते है। कोसलनरेश! क्या तुम ऐसे ईष्र्यालु तो नहीं हो? यद्यपि तुम्हारे पास लक्ष्मी नहीं है तो भी तुम दूसरों की सम्पत्ति देखकर सहन करो; क्योंकि चतुर मनुष्य दूसरों के यहाँ रहने वाली सम्पत्ति का भी सदा उपभोग करते है और जो लोगों से द्वेष रखता है, उसके पास सम्पत्ति हो तो भी वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। योगधर्म को जानने वाले धर्मात्मा धीर मनुष्य अपनी सम्पत्ति तथा पुत्र-पौत्रों का भी स्वयं ही त्याग कर देते है। स्वायम्भुव मनु के वंश में उत्पन्न हुए शुभ आचार विचारवाले राजा भरत ने नाना प्रकार के रत्नों से सम्पन्न अपने समृद्धिशाली राज्य को त्याग दिया था, यह बात मेरे सुनने में आयी है इसी प्रकार अन्य भूमिपालों ने भी महान् अभ्युदयशाली राज्य का परित्याग किया है। राज्य छोडकर वे सब के सब भूपाल वन में जंगली फल मूल खाकर रहते थे। वहीं वे तपस्या और दुख के पार पहुँच गये। धन की प्राप्ति निरन्तर प्रयत्न में लगे रहने से होती है, फिर भी वह अत्यन्त अस्थिर है, यह देखकर तथा इसे परम दुर्लभ मानकर भी दूसरे लोग उसका परित्याग कर देते है। परंतु तुम तो समझदार हो, तुम्हें मालुम हैं, भोग प्रारब्ध के अधीन और अस्थिर है, तो भी नहीं चाहने योग्य विषयों को चाहते हो और उनके लिये दीनता दिखाते हुए शोक कर रहे हो। तुम पूर्वोक्त बुद्धि को समझने की चेष्टा करो और इन भोगों को छोडो, जो तुम्हें अर्थ के रूप में प्रतीत होने वाले अनर्थ है क्योंकि वास्तव में समस्त भोग अनर्थस्वरूप् ही है। इस अर्थ या भोग के लिये ही कितने ही लोगों के धन का नाश हो जाता है। दूसरे लोग सम्पत्ति को अक्षय सुख मानकर उसे पाने की इच्छा करते है। कोई- कोई मनुष्य तो धन-सम्पत्ति में इस तरह रम जाता है कि उसे उससे बढकर सुख का साधन और कुछ जान ही नहीं पडता है। अतः वह धनोपार्जन की ही चेष्टा में लगा रहता है। परंतु देववश उस मनुष्य का वह सारा उद्योग सहसा नष्ट हो जाता है। कोसलनरेश! बडे कष्ट से प्राप्त किया हुआ वह अभीष्ट धन यदि नष्ट हो जाता है तो उसके उद्योग का सिलसिला टूट जाता है और वह धन से विरक्त हो जाता है। इस प्रकार उस सम्पत्ति को अनित्य समझकर भी भला कौन उसे प्राप्त करने की इच्छा करेगा। उत्तम कुल मंे उत्पन्न हुए कुछ ही मनुष्य ऐसे है, जो धर्म की शरण लेते है और परलोक में सुख की इच्छा रखकर समस्त लौकिक व्यापार में उपरत हो जाते है। कुछ लोग तो ऐसे है, जो धन के लोभ में पडकर अपने प्राण तक गँवा देते है। ऐसे मनुष्य धन के सिवा जीवन का दूसरा कोई प्रयोजन ही नहीं समझते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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