महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 35-51
अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
इस प्रकार सब ओर से उसका मार्ग अवरूद्ध हो गया था। सर्वत्र उसे भय–ही-भय दिखायी देता था। उस भय से वह संतप्त हो उठा। इसके बाद उसने पुन: श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय ले सोचना आरम्भ किया- ‘आपति में पड़कर विनाश के समीप पहुंचे हुए प्राणियों को भी अपने प्राणों की रक्षा के लिए प्रयत्न तो करना ही चाहिये। आज सब ओर से प्राणों का संशय उपस्थित है; अत यह मुझपर बड़ी भारी आपति आ गयी है। ‘यदि मैं पृथ्वी पर उतरकर भागता हूं तो सहसा नेवला मुझे पकड़कर खा जाएगा। यदि यहीं ठीहर जाता हूं तो उल्लू मुझे चोंचसे मार डालेगा और यदि जाल काटकर भीतर घुसता हूं तो बिलाव जीवित नहीं छोडे़गा। ‘तथापि मुझ–जैसे बुद्धिमान् को घबराना नहीं चाहिये। अत: जहॉ तक युक्ति काम देगी, परस्पर सहयोग का आदान-प्रदान करके मैं जीवन-रक्षा के लिये प्रयत्न करूगा। बुद्धिमान्, विद्वान, और नीतिशास्त्र में निपुण पुरूष भारी और भयंकर विपति में पड़नें पर भी उसमें डूब नहीं जाता है–उससे छूटने की चेष्टा करता है। ‘मैं इस समय इस बिलाव का सहारा लेने के सिवा,अपनें लिये दूसरा कोई मार्ग नहीं देखता। यदयपि यह मेरा कट्टर शत्रु है, तथापि इस समय स्वयं ही भारी संकट में पड़ा हुआ है। मेरे द्वारा इसका भी बड़ा भारी काम निकल सकता है। ‘इधर, मैं भी जीवन की रक्षा चाहता हं, तीन-तीन शत्रु मुझपर घात लगाये बैठे हैं;, अत: क्यों न आज मैं अपने शत्रु इस बिलाव का ही आश्रय लूं? ‘आज नीतिशास्त्र का सहारा लेकर इसके हित का वर्णन करूंगा; जिससे बुद्धि के द्वारा इस शत्रुसमुदाय को धोखा देकर बच जाऊंगा। ‘इसमें संदेह नहीं कि बिलाव मेरा महान दुश्मन है तथापि इस समय महान संकट में है। यदि सम्भव हो तो इस मूर्ख को संगति के द्वारा स्वार्थ सिद्ध करने की बात पर राजी करूं। ‘हो सकता है कि विपति में पड़ा होने के कारण यह मेरे साथ संधि कर ले। आचार्यों का कथन है कि संकट आ पड़ने पर जीवन की रक्षा चाहने वाले बलवान पुरूष को भी अपने निकटवर्ती शत्रु से मेल कर लेना चाहिये। ‘विद्वान शत्रु भी अच्छा होता है किंतु मूर्ख मित्र भी अच्छा नहीं होता है। मेरा जीवन तो आज मेरे शत्रु बिलाव के ही अधीन है। ‘अच्छा, अब मैं इसे आत्मरक्षा के लिये एक युक्ति बता रहा हूं। सम्भव है, यह शत्रु इस समय मेरी संगति से विद्वान् हो जाय–विवेक से काम ले’। इस प्रकार चूहे ने शत्रु की चेष्टा पर विचार किया। वह अर्थसिद्धि के उपाय को यथार्थरूप से जानने वाला तथा संधि और विग्रह के अवसर समझने वाला था। उसने बिलाव को सान्त्वना देते हुए मधुर वाणी में कहा-‘भैया बिलाव! मैं तुम्हारे प्रति मैत्री का भाव रखकर बातचीत कर रहा हूं। तुम अभी जीवित तो हो न? मैं चाहता हूं कि तुम्हारा जीवन सुरक्षित रहे; क्योंकि इसमें मेरी और तुम्हारी दोनों की एक-सी भलाई है। ‘सौम्य! तुम्हें डरना नहीं चाहिये। तुम आनन्दपूर्वक जीवित रह सकोगे। यदि मुझे मार डालने की इच्छा त्याग दो तो मैं इस संकट से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा।
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