महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 140 श्लोक 62-71

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चत्‍वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 62-71 का हिन्दी अनुवाद

‘राजा गीध के समान दूर तक दृष्टि डाले, बगुले के समान लक्ष्‍य पर दृष्टि जमाये, कुत्‍ते के समान चौकन्‍ना रहे और सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे, मन में उद्वेग को स्‍थान न दे, कौए की भांति संशक रहकर दूसरों की चेष्‍टा पर ध्‍यान रक्‍खें और दूसरे के बिल में प्रवेश करने वाले सर्प के समान शत्रु का छिद्र देखकर उस पर आक्रमण करे। ‘जो अपनेसे शूरवीर हो, उसे हाथ जोड़कर वश में करे, जो डरपोक हो, उसे भय दिखाकर फोड़ ले लोभी को धन देकर काबू में कर ले तथा जो बराबर हो उसके साथ युद्ध छेड़ दे। अनेक जाति के लोग जो एक कार्य के लिये संगठित होकर अपना दल बना लेते हैं, उसे दल को श्रेणी कहते हैं। ऐसी श्रेणियों के जा प्रधान हैं, उनमें जब भेद डाला जा रहा हो और अपने मित्रों को अनुनय–विनय के द्वारा जब दूसरे लोग अपनी ओर खींच रहे हों तथा जब सब ओर भेदनीति और दलबंदी के जाल बिछाये जा रहे हों, ऐसे अवसरों पर अपने मन्त्रियों की पूर्ण रूप से रक्षा करनी चाहिये। (न तो वे फूटने पावें और और न स्‍वयं ही कोई दल बनाकर अपने विरूद्ध कार्य करने पावें। इसके लिये सतत सावधान रहना चाहिये)। ‘राजा सदा कोमल रहे तो लोग उसकी अवहेलना करते हैं और सदा कठोर बना रहे तो उससे उद्विग्‍न हो उठते हैं, अत: जब कठोरता दिखाने का समय हो तो वह कठोर बन और जब कोमलतापूर्ण बर्ताव करने का अवसर हो तो कोमल बन जाय। ‘बुद्धिमान् राजा कोमल उपाय से कोमल शत्रु का नाश करता है और कोमल उपाय से ही दारूण शत्रु का भी संहार कर डालता है। कोमल उपाय से कुछ भी असाध्‍य नहीं है; अत: कोमल ही अत्‍यन्‍त तीक्ष्‍ण है। ‘जो समय पर कोमल होता है और समय पर कठोर बन जाता है, वह अपने सारे कार्य सिद्ध कर लेता है और शत्रु पर भी उसका अधिकार हो जाता है। ‘विद्वान् पुरूष से विरोध करके ‘में दूर हूं’ ऐसा समझकर निश्चिन्‍त नहीं होना चाहिये; क्‍योंकि बुद्धिमान् की बांहे बहुत बड़ी होती हैं (उसके द्वारा किये गये प्रतीकार के उपाय दूर तक प्रभाव डालते हैं) अत: यदि बु्द्धिमान् पुरूष पर चोट की गयी तो वह अपनी उन विशाल भुजाओं द्वारा दूर से भी शत्रु का विनाश कर सकता है। ‘जिसके पार न उतर सके, उस नदी को तैरने का साहस न करे। जिसको शत्रु पुन: बलपूर्वक वापस ले सके ऐसे धन का अपहरण ही न करे। ऐसे वृक्ष या शत्रु को खोदने या नष्‍ट करने की चेष्‍टा न करे जिसकी जड़ को उखाड़ फेंकना सम्‍भव न हो सके तथा उस वीर पर आघात न करे, जिसका मस्‍तक काटकर धरती पर गिरा न सके। ‘यह जो मैंने शत्रु के प्रति पापपूर्ण बर्ताव का उपदेश किया है, इसे समर्थ पुरूष सम्‍पति के समय कदापि आचरण में न लावे। परंतु जब शत्रु ऐसे ही बर्तावों द्वारा अपने ऊपर संकट उपस्थित कर दे, तब उसके प्रतीकार के लिये वह वह इन्‍हीं उपायों को काम में लाने का विचार क्‍यों न करे, इसीलिये तुम्‍हारे हित की इच्‍छा से मैंने यह सब कुछ बताया है’। हितार्थी ब्राह्मण भारद्वाज कणिक की कही हुई उन यथार्थ बातों को सुनकर सौ वीर देश के राजा ने उनका यथोचित रूप से पालन किया, जिससे वे बंधु–बांधवों–सहित समुज्‍ज्‍वल राजलक्ष्‍मी का उपभोग करने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्ति पर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व में कणिकका उपदेशविषयक एक सौ चालीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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