महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 151 श्लोक 13-22

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १४:१३, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकपञ्चाशदधिकशततम (151) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद

तुम्‍हें ब्राह्मणों की शक्ति का ज्ञान है। वेदों और शास्‍त्रों में जो उनकी महिमा उपलब्‍ध होती है, उसका भी पता है; अत: तुम शान्तिपूर्वक ऐसा प्रयत्‍न करो, जिससे ब्राह्मणजाति तुम्‍हें शरण दे सके। तात! क्रोधरहित ब्राह्मणों की सेवा के लिये जो कुछ किया जाता है वह पारलौकिक लाभ का ही हेतु होता है। अथवा यदि तुम्‍हें पाप के लिये पश्‍चाताप होता है तो तुम निरंतर धर्म पर ही दृष्टि रखो। जनमेजयन कहा- शौनक! मुझे अपने पाप के कारण बड़ा पश्‍चाताप होता है, अब मैं धर्म का कभी लोप नहीं करूंगा। मुझे कल्‍याण प्राप्‍त करने की इच्‍छा है; अत: आप मुझ भक्‍तपर प्रसन्‍न होइये। शौनक बोले-नरेश्‍वर! मैं तुम्‍हें तुम्‍हारे दम्‍भ और अभिमान का नाश करके तुम्‍हारा प्रिय करना चाहता हूं । तुम धर्म का निरंतर स्‍मरण रखते हुए समस्‍त प्राणियों के हित का साधन करो। राजन्! मैं भय से, दीनता से और लोभ से भी तुम्‍हें अपने पास नहीं बुलाता हूं । तुम इन ब्राह्मणों के सहित दैवीवाणी के समान मेरी य‍ह सच्‍ची बात कान खोलकर सुन लो। मैं तुमसे कोई वस्‍तु लेने की इच्‍छा नहीं रखता। यदि समस्‍त प्राणी मुझे खोटी–खरी सुनाते रहें, हाय–हाय मचाते रहें और धिक्‍कार देते रहें तो भी उनकी अवहेलना करके मैं तुम्‍हें केवल धर्म के कारण निकट आने के लिये आमन्त्रित करता हूं। मुझे लोग अधर्मज्ञ कहेंगे। मेरे हितैषी सुहृद् मुझे त्‍याग देंगे तथा तुम्‍हें धर्मोपदेश देने की बात सुनकर मेरे सुहृद् मुझपर अत्‍यन्‍त रोष से जल उठेंगे। तात! भारत! कोई–कोई महाज्ञानी पुरूष ही मेरे अभिप्राय को यथार्थरूप से समझ सकेंगे । ब्राह्मणों के प्रति भलाई करने के लिये मेरी यह सारी चेष्‍टा है। यह तुम अच्‍छी तरह जान लो। ब्राह्मण लोग मेरे कारण जैसे भी सकुशल रहें, वैसा ही प्रयत्‍न तुम करो। नरेश्‍वर! तुम मेरे सामने यह प्रतिज्ञा करो कि अब मैं ब्राह्मणों से कभी द्रोह नहीं करूंगा। जनमेजय ने कहा-विप्रवर! मैं आपके दोनों चरण छूकर शपथपूर्वक कहता हूं कि मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी ब्राह्मणों से द्रोह नहीं करूंगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व इन्‍द्रोत और पारिक्षित का संवाद विषयक एक सौ इक्‍यावनवां अध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।