महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 158 श्लोक 19-35

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अष्‍टपञ्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद

युक्तिबल का आश्रय लेकर बहुत–से असत् मार्ग खडे़ कर देते हैं तथा लोभ और अज्ञान में स्थित हो सत्पुरूषों के स्‍थापित किये हुए मार्गों (धर्ममर्यादाओं) का नाश करने लगते हैं। लोभग्रस्‍त दुरात्मा पुरूषों द्वारा अपहृत (विकृत) होने वाले धर्म की जो–जो स्थिती बिगड़ जाती या बदल जाती है, वह उसी रूप में प्रचलित हो जाती है। कुरूनन्दन! जिनकी बुद्धि लोभ में फंसी हुई है, उन मनुष्‍यों में दर्प्र, क्रोध्र, मद, दु:स्वप्‍न, हर्ष, शोक, तथा अत्यन्त अभिमान–ये ही दोष दिखायी देते हैं। जो सदा लोभ में डूबे रहते हैं, ऐसे ही मनुष्‍यों को तुम अशिष्‍ट समझो। तुम्‍हें शिष्‍ट पुरूषों से ही अपनी शंकाएं पूछनी चाहिये। पवित्र नियमों का पालन करने वाले उन शिष्‍ट पुरूषों का मैं परिचय दे रहा हूं। जिन्‍हें फिर संसार में जन्‍म लेने का भय नहीं है, परलोक से भी भय नहीं है, जिनकी भोगों में आसक्ति नहीं है तथा प्रिय और अप्रिय में भी जिनका राग-द्वेष नहीं है। जिन्‍हें शिष्‍टाचार प्रिय है। जिनमें इन्द्रिय–संयम प्रतिष्ठित है। जिनके लिये सुख और दु:ख समान है। सत्‍य ही जिनका परम आश्रय है। वे देते हैं, लेते नहीं। उनमें स्वभाव से ही दया भरी रहती है। वे देवताओं, पितरों तथा अतिथियों के सेवक होते हैं और सत्कर्म करने के लिये सदा उद्यत रहते हैं। भरतनन्दन! वे वीर पुरूष सबका उपकार करने वाले, सम्पूर्ण धर्मों के रक्षक तथा समस्त प्राणियों के हितैषी होते हैं। वे परहित के लिये सर्वस्व निछावर कर देते हैं। उन्‍हें सत्कर्म से विचलित नहीं किया जा सकता। वे केवल धर्म के अनुष्‍ठान में तत्पर रहते हैं। पहले के श्रेष्‍ठ पुरूषों ने जिसका पालन किया है, उसी सदाचार का वे भी पालन करते हैं। उनका वह आचार कभी नष्‍ट नहीं होता। वे किसी को भय नहीं दिखाते, चपलता नहीं करते उनका स्वभाव किसी के लिये भयंकर नहीं होता है, वे सदा सन्मार्गमें ही स्थित रहते हैं, उनमें अहिंसा नित्‍य प्रतिष्ठित होती है, ऐसे श्रेष्‍ठ पुरूषों का ही सदा सेवन करना चाहिये। जो काम और क्रोध से रहित, ममता और अंहकार से शून्‍य, उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले तथा धर्ममर्यादा को स्थिर रखने वाले हैं, उन्‍हीं महापुरूषों का संग करो और उनसे अपना संदेह पूछो। युधिष्ठिर! उनका धर्मपालन धन बटोरने या यश कमाने के लिये नहीं होता। वे धर्म तथा शारीरीक क्रियाओं को अवश्‍यकर्तव्‍य समझकर ही करते हैं। उनमें भय, क्रोध, चपलता तथा शोक नहीं होता। वे धर्मध्‍वजी (पाखण्‍डी) नहीं होते, किसी गोपनीय पाखण्‍डपूर्ण धर्म का आश्रय नहीं लेते हैं। कुन्तीनन्दन! जिनमें लोभ और मोह का अभाव है, जो सत्‍य और सरलता में स्थित हैं कभी सदाचार से भ्रष्‍ट नहीं होते हैं, ऐसे पुरूषों में तुम्‍हें प्रेम रखना चाहिये। तात! जो लाभ में हर्ष से फूल नहीं उठते, हानि में व्यथित नहीं होते, ममता और अंहकार से शुन्‍य हैं, जो सर्वदा सत्वगुण में स्थित और समदर्शी होते हैं, जिनकी दृष्टि में लाभ–हानि सुख-दुख, प्रिय–अप्रिय तथा जीवन–मरण समान हैं, जो सुदृढ़ पराक्रमी, आध्‍यात्मिक उन्नति के इच्छुक और सत्‍त्‍वमय मार्ग में स्थित हैं, उन धर्मप्रेमी महानुभावों की तुम सावधान और जितेन्द्रिय रहकर सेवा–सत्कार करो। ये सब महापुरूष स्वभाव से ही बडे़ गुणवान् होते हैं। शुभ और अशुभ के विषय में उनकी वाणी यथार्थ होती है। दूसरे लोग तो केवल बातें बनाने वाले होते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में आपत्ति के मूलभूत दोष का वर्णनविषयक एक सौ अट्ठावनवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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