महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 174 श्लोक 28-42
चतुसप्तत्यधिकशततम (174) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
मनुष्य हितैषी सुहृदों से युक्त हो या न हो, वह शत्रु के साथ हो या मित्र के, बुद्धिमान हो या बुद्धिहीन, दैव की अनुकूलता होने पर ही सुख पाता है । अन्यथा न तो सुहृद सुख देने समर्थ हैं, न शत्रु दुख देने में समर्थ हैं, न तो बुद्धि धन देने की शक्ति रखती है और न धन ही सुख देने में समर्थ होता है। न तो बुद्धि धन की प्राप्ति में कारण है, न मूर्खता निर्धनता में, वास्तव में संसार चक्र की गति का वृतांत कोई ज्ञानी पुरूष ही जान पाता है, दूसरा नहीं। बुद्धिमान, शूरवीर, मूढ, डरपोक, गूंगा, विद्वान, दुर्बल और बलवान जो भी भाग्यवान होगा- देव जिसके अनुकूल हेागा, उसे बिना यत्न के ही सुख प्राप्त होगा। दूध देने वाली गौ बछड़े की है या उसे दुहने अथवा चराने वाले गवाले की है, या रखने वाले मालिक की हैं। अथवा उसे चुराकर ले जाने वाले चोर की है? वास्तव में जो उसका दूध पीता है, उसी की वह गाय है- ऐसा विद्वानों का निश्चय है। इस संसार में जो अत्यंत मूढ़ है और जो बुद्धि से परे पहुंच गये है, वे ही मनुष्य सुखी है। बीच के सभी लोग कष्ट भोगते हैं। ज्ञानी पुरूष अन्तिम स्थितयों में रमण करते हैं, मध्यवर्ती स्थिति में नहीं। अन्तिम स्थिति की प्राप्ति सुखस्वरूप बतायी जाती है ओर दोनों के मध्य की स्थिति दु:खरूप कही गयी है। खोटी बुद्धिवाला मूर्ख मनुष्य अपने कर्मो के शुभाशुभ परिणाम कोई परवाह न करके सुख से सोता है, क्योंकि वह कम्बल से ढ़के हुए पुरूष की भांति महान् अज्ञान से आवृत रहता है। किंतु जिन्हें ज्ञानजनित सुख प्राप्त है, जो द्वन्द्वों से अतीत है तथा जिनमें मत्सरता का भी अभाव है, उन्हें अर्थ और अनर्थ कभी पीड़ा नहीं देते है। जो मूढ़ता को तो लांघ चुके है, परंतु जिनको ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, वे सुख की परिस्थियों आने पर अत्यंत हर्ष से फूल उठते है और दु:ख की परिस्थिति में अतिशय संताप का अनुभव करने लगते है। मूर्ख मनुष्य स्वर्ग में देवताओं की भांति सदा विषयसुख में मग्न रहते है, क्योंकि उनका चित विषया–सक्ति के कीचड़ में लथपथ होकर मोहित हो जाता है। आरम्भ में आलस्य सुख–सा जान पड़ता है, दुख–सा लगता है, परंतु वह सुख का उत्पादक है। कार्यकुशल पुरूष में ही लक्ष्मी सहित ऐश्वर्य निवास करता है, आलसी में नहीं। अत: बुद्धिमान पुरूष को चाहिये कि सुख ये दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो–जो प्राप्त हो जाय, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। शोक के हजारों स्थान है और भय के सैकड़ों स्थान हैं, किंतु वे प्रतिदिन मूर्खों पर ही प्रभाव डालते हैं, विद्वानों पर नहीं। जो बुद्धिमान्, उंहापोह में कुशल एवं शिक्षित बुद्धिवाला, अध्यात्मशास्त्र के श्रवण इच्छा रखने वाला, किसी के दोष न देखने वाला, मन को वशमें रखनेवाला और जितेन्द्रिय है, उस मनुष्य को शोक कभी छू भी नहीं सकता। विद्वान् पुरूष को चाहिये कि वह इसी विचार का आश्रय लेकर मन को काम, क्रोध आदि शत्रुओं से सुरक्षित रखते हुए उत्तम बर्ताव करे। जो उत्पति और विनाश के तत्त्व को जानता है, उसे शोक छू नहीं सकता।
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