महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 178 श्लोक 1-13

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अष्‍टसप्तत्यधिकशततम (178) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्‍नों के उतर में बोध्‍यगीता

भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! इसी विषय में शान्तभाव को प्राप्‍त हुए विदेहराज जनक ने जो उद्गार प्रकट किया था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। (जनक बोले-) मेरे पास अनन्त–सा धन–वैभव है, फिर भी मेरा कुछ नहीं है। इस मिथिलापुरी में आग लग जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलता। युधिष्ठिर! इसी प्रसंग में वैराग्य को लक्ष्‍य करके बोध्‍य मुनिने जो वचन कहे हैं, उन्हें बताता हूं, सुनो। कहते हैं, किसी समय नहुषनन्दन राजा ययातिने वैराग्य शान्तभाव को प्राप्‍त हुए शास्त्र के उत्‍कृष्‍ट ज्ञान से परितृप्त परम शान्त बोध्‍य ॠषि से पूछा-‘महाप्राज्ञ! आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे मुझे शान्ति मिले। कौन–सी ऐसी बुद्धि है, जिसका आश्रय लेकर आप शान्ति और संतोष के साथ विचरते हैं?’ । बोध्‍यने कहा- राजन्! मैं किसी को उपदेश नहीं देता, बल्कि स्वयं दूसरों से प्राप्‍त हुए उपदेश के अनुसार आचरण करता हूं। मैं अपने को मिले हुए उपदेश का लक्षण बता रहा हूं ( जिनसे उपदेश मिला है, उन गुरूओं का संकेतमात्र कर रहा हूं), उस पर तुम स्वयं विचार करो। पिंगला, कुरर पक्षी, सर्प, वन में सांरग का अन्वेषण, बाण बनाने वाला और कुमारी कन्या- ये छ: मेरे गुरू हैं। भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! बोध्‍यों को अपने गुरूओं से जो उपदेश प्राप्‍त हुआ था, वह इस प्रकार समझना चाहिये- आशा बड़ी प्रबल है। वही सबको दु:ख देती है। निराशा के रूप में परिणत करके पिंगला वेश्‍या सुख से सो गयी। ( पिंगला आशा के त्याग का उपदेश देने के कारण गुरू हुई )। चोंच में मांस का टुकड़ा लिये उड़ते हुए कुरूर (क्रौंच) पक्षी को देखकर दूसरे पक्षी जो मांस नहीं लिये हुए थे, उसे मारने लगे। तब उसने उस मांस के टुकडे को त्‍याग दिया। अत: पक्षियों ने उसका पीछा करना छोड दिया। इस प्रकार आमिष के त्याग से क्रौंच पक्षी सुखी हो गया। भोगों के परित्याग का उपदेश देने के कारण कुरूर (क्रौंच) पक्षी गुरू हुआ। घर बनाने का खटपट करना दु:ख का ही कारण है। उससे कभी सुख नहीं मिलता। देखों, सांप दूसरों के बनाये हुए घर (बिल) में प्रवेश करके सुख से रहता है। ( अत: अनिकेत रहने–घर–द्वार के चक्‍कर में न पड़ने का उपदेश देने के कारण सर्प गुरू हूआ)। जिस प्रकार पपीहा पक्षी किसी भी प्राणी से वैर न करके याचनावृत्ति से अपना निर्वाह करते है, उसी प्रकार मुनिजन भिक्षावृति का आश्रय ले‍कर सुख से जीवन व्यतीत करते हैं (अद्रोह का उपदेश देने के कारण पपीहा गुरू हुआ)। एक बार एक बाण बनाने वाले को देखा गया, वह अपने काम में ऐसा दतचित्त था कि उसके पास से निकली हुई राजा की सवारी का भी उसे कुछ पता नहीं चला (उसके द्वारा एकाग्रचितता का उपदेश प्राप्‍त हुआ, इसलिये वह गुरू हो गया)। बहुत मनुष्‍य एक साथ रहें तो उनमें प्रतिदिन कलह होता है और दो रहें तो भी उनमें बातचीत तो अवश्‍य ही होती है; अत: मैं कुमारी कन्‍या के हाथ में धारण की हुई शंख की एक–एक चूडी के समान अकेला ही विचरूगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में बोध्‍यगीताविषयक एक सौ अठहतरवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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