महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 37-50

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एकोनषष्टित्तम (59) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व : एकोनषष्टित्तम अध्याय: श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद

संधि के तीन भेद है- उत्तम, मध्यम और अधम, इन की क्रमशः वित्तसंधि, सत्कारसंधि और भयसंधि- ये तीन संज्ञाएँ है। धन लेकर जो संधि की जाती है, वह वित्तसंधि उत्तम है। सत्कार पाकर की हुई दूसरी संधि मध्यम है और भय के कारण की जाने वाली तीसरी संधि अधम मानी गयी है। इस सबका उस ग्रन्थ में विस्तारपूर्वक वर्णन है। राजा से हीन प्रजा की बह्माजी से राजा के लिये प्रार्थना शत्रुओं पर चढाई करने के चार[१] अवसर त्रिर्वग के विस्तार, धर्म-विजय तथा आसुर -विजय का भी उक्त ग्रन्थ में पूर्ण रुप से वर्णन किया है। मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, सेना और कोष - इन पाँच वर्गो के उत्तम, मध्यम और अधम भेद से तीन प्रकार के लक्षणों का भी प्रतिपादन किया गया है। प्रकट और गुप्त दो प्रकार की सेनाओं का भी वर्णन किया है। उनमे प्रकट सेना आठ प्रकार की बताई गयी है। और गुप्त सेना का विस्तार बहुत अधिक कहा गया है। कुरुवंशी पाण्डुनन्दन! हाथी, घोडे, रथ, पैदल, बेगार में पकडे़ गये बोझ ढोने वाले गुरु-ये सेनाके प्रकट आठ अंग है। सेना के गुप्त अंग हैं जंगम (सर्पादिजनित) और अजंगम (पेड-पौधों से उत्पन्न) विष आदि चूर्ण योग अर्थात विनाशकारक ओषधियाँ। यह गोपनीय दण्डनसाधन (विष आदि) शत्रुपक्ष के लोगों वस्त्र आदि के साथ स्पर्श कराने अथवा उनके भोजन में मिला देने के उपयोग में आता है। विभिन्न मन्त्रों के जप का प्रयोग भी पूर्वोक्त नीतिशास्त्र में बताया गया है। इसके सिवा इस ग्रन्थो में शत्रु, मित्र और उदासीन का भी बारंबार वर्णन किया गया है। तथा मार्गके समस्त गुण, भूमि के गुण, आत्मरक्षा के उपाय, आश्वासन तथा रथ आदि के निर्माण और निरीक्षण आदि का भी वर्णन है। सेना को पुष्ट करने वाले अनेक प्रकार के योग, हाथी, घोडा, रथ और मनुष्य-सेना की भाँति-भाँति की व्यूह-रचना, नाना प्रकार के युद्धकौशल, जैसे ऊपर उछल जाना नीचे झुककर अपने को बचा लेना, सावधान होकर भलिभाँति युद्ध करना, कुशलता पुर्वक वहाँ से निकल भागना-इन सब उपायों का भी इस ग्रन्थो में वर्णन है। भरतश्रेष्ठ! शस्त्रोंके सरंक्षण और प्रयोग के ज्ञानता भी उनमें उल्लेख है। पाण्डुकुमार! विपत्ति से सेनाओं का उद्धार करना, सैनिकों का हर्ष और उत्साह बढाना, पीडा़ और आपत्ति के समय पैदल सैनिकों की स्वामिभक्ति की परीक्षा करना- इन सब बातों का उस शास्त्र में वर्णन किया गया है। दुर्ग के चारों ओर खाई खुदवाना, सेना का युद्ध के लिये सुसज्जित होना तथा रणयात्रा करना, चोरों और भयानक जंगली लुटेरों द्वारा शत्रु के राष्ट्र को पीडा देना, आग लगाने वाले, जहर देने वाले, छत्रवेशधारी लोगों द्वारा भी शत्रु को हानि पहुँचाना तथा एक-एक शत्रुदल के प्रधान-प्रधान लोगों में भेद उत्पन्न करना, फसल और पौधों को काट लेना, हाथियों को भडकाना, लोगों में आतंक उत्पन्न करना, शत्रुओं में अनुरक्त पुरूष को अनुनय आदि के द्वारा फोड लेना और शत्रुपक्ष के लोगों में अपने प्रति विश्वास उत्पन्न कराना आदि उपायों से शत्रु के राष्ट्र को पीडा देने की कलाका भी ब्रह्माजी के उक्त ग्रन्थ में वर्णन किया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (1) अपने मित्रों की वृद्धि। (2) अपने कोश का भरपूर संग्रह। (3) शत्रु के मित्रों का नाश। (4) शत्रु के कोश की हानि।

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