महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 67 श्लोक 18-35

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सप्तषष्टितम (67) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

तब उन सबने मिलकर आपसमें नियम बनाया- यह बात हमारे सुननेमें आयी है। वह नियम इस प्रकार है-‘हम लोगांेमेंसे जो भी निष्दठुर बोलनेवाला, भयानक दण्ड देनेवाला, परस्त्रीगामी तथा पराये धनका अपहरण करनेवाला हो, ऐसे सब लोंगोंको हमें समाजसे बहिष्कृत कर देना चाहिये।‘ सभी वर्णके लोगोंमें विश्वास उत्पन्न करनेके लिये सामान्यतः ऐसा नियम बनाकर उसका पालन करते हुए वे सब लोग सुखसे रहने लगे। (कुछ समयतक इस प्रकार काम चलता रहा; किंतु आगे चलकर पुनः दुव्र्यवस्था फैल गयी) तब दुः,खसे पीडि़त हुई सारी प्रजाएँ एक साथ मिलकर ब्रह्माजीके पास गयीं और उनसे कहने लगीं-‘भगवन् ! राजाके बिना तो हमलोग नष्ट हो रहे हैं। आप हमंे कोई ऐसा राजा दीजिये, जो शासन करनेमें समर्थ हो, हमस ब लोग मिलकर जिसकी पूजा करंे और जो निरन्तर हमारा पालन करता रहे‘। तब ब्रह्रा्राजीने कहा राजा होने की आज्ञा दी; परंतु मनुने उन प्रजाओंको स्वीकार नही किया । मनु बोले- भगवन् ! मैं पापकर्म से बहुत डरता हूँ। राज्य करना वड़ा कठिन काम है-विशेषतः सदा मिथ्याचारमें प्रवृत्त रहनेवाले मनुष्योंपर शासन करना तो और भी दुष्कर है। भीष्मजी कहते हैं- राजन्! तब समस्त प्रजाओंने मनुसे कहा-‘महाराज ! आप डरें मत। पाप तो उन्हींको लगेगा, जी उसे करेंगे। हमलोग आपके कोशकी वृद्धिके लिये प्रति पचास पशुओंपर एक पशु आपको दिया करेंगे। इसी प्रकार सुवर्णका भी पचासवाँ भाग देते रहेंगे। अनाजकी उपजका दसवाँ भाग करके रूपमें देंगे। जब हमारी बहुत-सी कन्याएँ विवाहके लिये उद्यत होंगी, उस समय उनमें जो सबसे सुन्दरी कन्या होगी, उसे हम शुल्कके रूपमें आपको भेंट कर देंगे।। ‘जैसे देवता देवराज इन्द्रका अनुसरण करते है, उसी प्रकार प्रधान-प्रधान मनुष्य अपने प्रमुख शस्त्रों और वाहनोंके साथ आपके पीछे-पीछे चलेंगे। ‘प्रजाका सहयोग पाकर आप एक प्रबल, दुर्जय और प्रतापी राजा होंगे। जैसे कुबेर यक्षों तथा राक्षसोंकी रक्षा करके उन्हें सुखी बनाते हैं, उसी प्रकार आप हमें सुरक्षित एवं सुखसे रखेंगे। ‘आप जैसे राजाके द्वारा सुरक्षित हुई प्रजाएँ जो-जो धर्म करेंगी, उसका चतुर्थ भाग आपको मिलता रहेगा। ‘राजन्! सुखपूर्वक प्राप्त हुए उस महान् धर्मसे सम्पन्न हो आप उसी प्रकार सब ओरसे हमारी रक्षा कीजिये, जैसे इन्द्र देवताओंकी रक्षा करते है। ‘महाराज ! आप तपते हुए अंशुमाली सूर्यके समान विजयके लिये यात्रा कीजिये, शत्रुओंका घमंड़ धूलमें मिला दीजिये और सर्वदा आपकी जय हो‘। तब महान् सैन्यबल से घिरे हुए महाकुलीन, महातेजस्वी राजा मनु अपने तेज से प्रकाशित होते हुए-से निकले। जैसे देवता देवराज इन्द्रका प्रभाव देखकर प्रभावित हो जाते हैं, उसी प्रकार सब लोग महाराज मनुका महत्त्व देखकर आतंकित हो उठे और अपने-अपने धर्म में मन लगाने लगे। तदनन्तर वर्षा करनेवाले मेघके समान मनु पापाचारियोंको शान्त करते और उन्हें अपने वर्णाश्रमोचित कर्मोंमें लगाते हुए भूमण्डलपर चारों ओर घूमने लगे। इस प्रकार जो मनुष्य वैभव-वृद्धिकी कामना रखते हों, उन्हें सबसे पहले इस भूमण्डलमें प्रजाजनोंपर अनुग्रह करनेके लिये कोई राजा अवश्य बना लेना चाहिये। फिर जैसे शिष्य भक्तिभावसे गुरूको नमस्कार करते हैं तथा जैसे देवता देवराज इन्द्रको प्रणाम करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजाजनोंको अपने राजाके निकट नमस्कार करना चाहिये। इस लोकमें आत्मीयजन जिसका आदर करते हैं, उसे दूसरे लोग भी बहुत मानते हैं और जो स्वजनोंद्वारा तिरस्कृत होता है, उसका दूसरे भी अनादर करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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