महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 68 श्लोक 54-61

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अष्टषष्टितम (68) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 54-61 का हिन्दी अनुवाद

भोज, विराट, सम्राट, क्षत्रिय, भूपति और नृप इन शब्दों द्वारा जिस राजा की स्तुति की जाती है, उस प्रजापालक नरेश की पूजा कौन नहीं करेगा? इसलिये अपनी उन्नति की इच्छा रखने वाला, मेधावी, स्मरणशक्ति से सम्पन्न एवं कार्यदक्ष मनुष्य नियमपूर्वक रहकर मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए राजा का आश्रय ग्रहण करे । राजा को उचित है कि वह कृतज्ञ, विद्धान, महामना, राजा को प्रति दृढ़ भक्ति रखने वाले, जितेन्द्रिय, नित्य धर्मपरायण और नीतिज्ञ मन्त्री का आदर करे। इसी प्रकार राजा अपने प्रति दृढ़ भक्ति से सम्पन्न, युद्ध की शिक्षा पाये हुए, बुद्धिमान, धर्मज्ञ, जितेन्द्रिय, श्ूारवीर और श्रेष्ठ कर्म करने वाले ऐसे वीर पुरुष को सेनापति बनावे, जो अपनी सहायता के लिये दूसरों का आश्रय लेने वाला न हो। राजा मनुष्य को धृष्ट एवं सबल बनाता है और राजाही उसे दुर्बल कर देता है। राजा के रोष का शिकार बने हुए मनुष्य को कैसे सुख मिल सकता है? राजा अपने शरणगत को सुखी बना देता है। राजा प्रजाओं का प्रथम अथवा प्रधान शरीर है। प्रजा भी राजा अनुपम शरीर है। राजा के बिना देश और वहाँ के निवासी नही रह सकते हैं। राजा प्रजा का गुरुतर हद्य, गति, प्रतिष्ठा और उत्तम सुख है। नरेन्द्र! राजा का आश्रय लेने वाले मनुष्य इस लोक और परलोकपर भी पूर्णतः विजय पा लेते हैं। राजा भी इन्द्रिय सयंम, सत्य और सौहार्द के साथ इस पृथ्वी का भली-भँाति शासन करके बडे़-बडे़ यज्ञों के अनुष्ठान द्धारा महान् यश का भागी हो स्वर्ग लोक में सनातन स्थान प्राप्त कर लेता है। राजन्! बृहस्पति जी के ऐसा कहने पर राजाओं में श्रेष्ठ कोसल नरेश वीर वसुमना अपनी प्रजाओं का प्रयत्न पूर्वक पालन करने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मांनुशासनपर्वं में बृहस्पतिजी का उपदेशविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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