महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 69 श्लोक 74-76

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एकोनसप्ततिम (69) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्ततिम अध्याय: श्लोक 74-76 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर! इस विषय में शुक्राचार्यं के कहे हुए कुछ श्लोक हैं, उन्हें सुनो। राजन् ! उन श्लोकों में जो भाव है, वह दण्डनीति तथा त्रिवर्ग का मूल है। भार्गवादिरसकर्मं, षोडशाग बल, विष, माया, दैव और पुरूषार्थं-ये सभी वस्तुएँ राजा की अर्थसिद्धि के कारण हैं। राजा को चाहिये, जिसमें पूर्वं और उत्तर दिशा की भूमि नीची हो तथा तीनों प्रकार के त्रिवर्गां से परिपूर्ण हो उस दुर्गं का आश्रय ले राज्य कार्यं का भार वहन करे। षड्वर्गं[१], पंचवर्ग[२], दस दोष[३] और आठ दोष[४]-इन सबको जीतकर त्रिवर्गयुक्त[५] एवं दस वर्गों के[६] ज्ञान से सम्पन्न हुआ राजा देवताओं द्वारा भी जीता नहीं जा सकता। राजा कभी स्त्रियों और मूर्खों से सलाह न ले। जिनकी बुद्धि दैव से मारी गयी है तथा जो वेदों के ज्ञान से शून्य हैं, उनकी बात राजा कभी न सुने; क्योंकि उन लोगों की बुद्धि नीति से विमुख होती हैं। जिन राज्यों में स्त्रियों की प्रधानता हो और जिन्हें विद्वानों ने छोड़ रखा हो; वे राज्य मूर्खं मन्त्रियों से संतप्त होकर पानी की बूँद के समान सूख जाते हैं। जो अपनी विद्वता के लिये विख्यात हों, सभी कार्यों मे विश्वास के योग्य हों तथा युद्ध के अवसरों पर जिनके कार्यं देखे गये हों, ऐसे मन्त्रियों की ही बात राजा को सुननी चाहिये। दैव, पुरूषार्थं और त्रिवर्गं का आश्रय ले देवताओं तथा ब्राह्मणों को प्रणाम करकें युद्ध की यात्रा करने वाला राजा विजयी होता हैं। युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह ! दण्डनीति तथा राजा दोनों मिलकर ही कार्यं करते हैं। इनमें से किसके क्या करने से कार्यं-सिद्धि होती है? यह मुझे बताइये। भीष्म जी बोले-राजन् ! भरतनन्दन ! दण्डनीति से राजा और प्रजा के जिस महान् सौभाग्य का उदय होता है, उसका मैं लोकप्रसिद्ध एवं युक्तियुक्त शब्दों द्वारा वर्णन करता हूँ, तुम यथावत् रूप से यहाँ उसें सुनो। यदि राजा दण्डनीति का उत्तम रीति से प्रयोग करे तो वह चारों वर्णों को अपने-अपने धर्मं में बलपूर्वक लगाती है और उन्हें अधर्मं की ओर जाने से रोक देती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य-इन छः आन्तरिक शत्रुओं के समुदाय को षड्वर्ग कहते हैं। इनको पूर्णरूप से जीत लेने वाला ही सर्वत्र विजयी होता हैं।
  2. श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण-इन पाँच इन्द्रियों के समूह को ही पंचवर्ग कहते है। इन सबको क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इन विषयों में आसक्त न होने देना ही इन पर विजय पाना हैं।
  3. आखेट, जुआ, दिन में सोना, दूसरों की निन्दा करना, स्त्रियों में आसक्त होना, मद्य पीना, नाचना, गाना, बाजा बजाना और व्यर्थं घूमना-ये कामजनित दस दोष हैं, जिनपर राजा को विजय पाना चाहिये। इनको सर्वथा त्याग देना ही इनपर विजय पाना हैं।
  4. चुगली, साहस, द्रोह, ईष्र्या, दोषदर्शन, अर्थदूषण, वाणी की कठोरता और दण्ड की कठोरता-ये क्रोध से उत्पन्न होने वाले आठ दोष राजा के लिये त्याज्य हैं।
  5. धर्मं, अर्थं और काम को अथवा उत्साहशक्ति, प्रभुशक्ति और मन्त्रशक्ति को त्रिवर्गं कहते हैं।
  6. मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और दण्ड-ये पाँच ही अपने और शत्रुवर्गं के मिलाकर दस वर्गं कहलाते हैं। इनकी पूरी जानकारी रखने पर राजा को अपने और शत्रुपक्ष के बलाबल का पूर्णं ज्ञान होता हैं।

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