महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 77 श्लोक 15-27

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सप्तसप्ततितम (77) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद

मेरे राज्य वैश्य भी अपने कर्मों मे ही लगे रहते है। वे छल-कपट छोडकर खेती, गोरक्षा और व्यापार से जीविका चलाते हैं प्रमाद मे संलग्न रहते हैं उत्तम व्रतों का पालन करने वाले और सत्यवादि हैं। अतिथियों को देकर खाते हैं, इन्द्रियों को संयम में रखते है, शौचाचार का पालन करते हैं और सबके प्रति सौहार्द बनाये रखते हैं तो भी मेरे भीतर तुम कैसे घुस आये? मेरे यहाँ के शूद्र भी तीनों वर्णों को यथावत सेवा से जीवन-निर्वाह करते है। तथा पर दोष दर्शन से दूर ही रहते है। इस प्रकार वे भी अपने कर्मों मे ही स्थित हैं। तथापि तुम मेरे भीतर कैसे घुस आये? दीन, अनाथ, वृद्ध, दुर्बल, रोगी तथा स्त्री-इन सबको मैं अन्न-वस्त्र तथा औषध आदि आवश्यक वस्तुएँ देता रहता हुँ, तथापि तुम मेरे शरीर में कैसे प्रविष्ट हो गये ? मैं अपने सुविख्यात कुल-धर्म ,देश-धर्म तथा जाति-धर्म की परम्परा का विधि पुर्वक पालन करता हुआ इन सब धर्मों में से किसी का भी लोप नहीं होने देता, तो भी तुम मेरे भीतर कैसे घुस आये? अपने राज्य के तपस्वी मुनियों की मैने सदा ही पूजा और रक्षा की तथा उन्हें सत्कारपूर्वक आवश्यक वस्तुएँ दी हैं। इतने पर भी मेरे शरीर के भीतर तुम्हारा प्रवेश कैसे सम्भव हुआ है? मैं देवता, पितर तथा अतिथि आदि को उनका भाग अर्पण किये बिना कभी नहीं भोजन करता। परायी स्त्री से कभी सम्पर्क नहीं रखता नहीं तथा कभी स्वच्छन्द होकर क्रीडा नहीं करता तो भी तुमने मेरे भीतर घुस आये? मेरे राज्य में कोई भी ब्रह्यचार्य का पालन करने वाला भिक्षा नहीं माँगता अथवा भिक्षु या संयासी ब्रह्यचर्य का पालन किये बिना नहीं रहता। बिना ऋत्विज् के मेरे यहाँ होम नहीं होता; फिर तुम कैसे मेरे भीतर घुस आये? राज्य सिंहासन पर स्थित होकर भी मेंने सारा राज्यकार्य कर्तव्य-पालन की दृष्टि से किया है और सारा सत्य से मैं विचलित नहीं हुआ हूँ; तो मेरे शरीर के भीतर तुम्हारा प्रवेश कैसे हुआ है? मैं विद्धानों, वृद्धों तथा तपस्वी जनो का कभी तिरस्कार नहीं करता हुँ। जब सारा राष्ट्र सोता हैं, उस समय भी मैं उसकी रक्षा के लिये जागता रहता हूँ, तथापि तुम मेरे शरीर के भीतर कैसे चल आये? मैं सब जगह निर्दोष एवं विशुद्ध कर्म करने वाला हूँ, मुझे कहीं भी दुर्गति का भय नहीं हैं। मैं धर्म का आचरण करने वाला गृहस्थ हूँ। तुम मेरे शरीर के भीतर कैसे आ गये? मेरे बुद्धिमान् पुरोहित आत्मज्ञानी, तपस्वी तथा सब धर्मो के ज्ञाता हैं। वे सम्पूर्ण राष्ट्र के स्वामी हैं। मैं धन देकर विद्या पाने की इच्छा रखता हूँ। सत्य के पालन तथा ब्राह्मणों के संरक्षण द्वारा अभीष्ट अर्थ ( पुण्यलोकों पर अधिकार) पाना चाहता हूँ तथा सेवा शुश्रूषाद्वारा गुरूजनों को संतुष्ट करने के लिये उनके पास जाता हूँ; अतः मुझे राक्षसों से कभी भय नहीं है। मेरे राज्य में कोई स्त्री विधवा नहीं है तथा कोई भी ब्राह्मण अधम, धूर्त, चोर, अनधिकारियों का यज्ञ कराने वाला और पापाचारी नहीं है; इसलिये मुझे राक्षसों से तनिक भी भय नहीं है। मेरे शरीर में दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं है, जो धर्म के लिये युद्ध करते समय अस्त्र-शस्त्रों से घायल न हुआ हो, तथापि तुम मेरे भीतर कैसे घुस आये?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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